यूक्रेन प्रकरण : महाशक्ति होने के बावजूद अमेरिका सैन्य मामले में रूस से नहीं टकरा सकता। अमेरिका ने हर कदम अपने आर्थिक लाभ के लिये उठाया है।

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 यूक्रेन प्रकरण : महाशक्ति होने के बावजूद अमेरिका सैन्य मामले में रूस से नहीं टकरा सकता। अमेरिका ने हर कदम अपने आर्थिक लाभ के लिये उठाया है।

- राजेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

यूक्रेन पर रूस का हमला लगातार जारी है। रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने कहा कि वे कभी भी यूक्रेन पर हमला करना नहीं चाहते थे लेकिन यूक्रेन लगातार नाटो में शामिल होने की कोशिश कर रहा है और नाटो देश भी यूक्रेन को शामिल करने की तैयारी कर रहे थे। इसके लिये कई बार यूक्रेन को बताया भी गया लेकिन यूक्रेन कुछ भी सुनने को तैयार नही था। अपने देश की रक्षा करने का सभी को अधिकार है। इसी कड़ी में रूस ने यूक्रेन के खिलाफ अपना अभियान चलाया। यह एक पक्ष है लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि अमेरिका समेत नाटो देश ने यूक्रेन की रक्षा क्यों नहीं की? जबकि अमेरिका समेत यूरोपीय देश हमेशा से यह बयान देते आ रहे थे कि वे यूक्रेन के साथ हैं। यदि रूस ने कुछ किया तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन सिर्फ आर्थिक प्रतिबंध और निंदा की। यह काम तो अमेरिका रूस के साथ शुरू से करता आ रहा है। इतना हीं नहीं जब भारत ने रूस से मिसाइल डिफेंस सिस्टम खरीदने की बात की तो भी अमेरिका ने विरोध किया और आर्थिक प्रतिबंध की बात कही। 

आईये जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन समेत नाटो देशों ने यूक्रेन को अपने जिगर का टूकड़ा कहने के बावजूद साथ क्यों नहीं दिया ? आगे बढने से पहले यह साफ कर दूं कि अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक शक्तिशाली देश है, चाहे हथियार का मामला हो या आर्थिक शक्ति का। बावजूद रूस साधारण देश तो है नहीं कि आप उसे धमकी देंगे और आपकी बात नहीं माना, तो बमों की वर्षा कर देंगे। अमेरिका और नाटो ने इतनी अधिक मनमानी किया है विश्व में कि उसके पास कहने का नैतिक अधिकार कुछ भी नहीं है। खैर ।  

यूक्रेन नाटो सदस्य नहीं, इसलिये नाटो सेना नहीं भेजी गई ? :

अमेरिकी राष्ट्रपति जो. बाइडेन ने कहा यूक्रेन के समर्थन में अमेरिका अपनी सेना नहीं भेजेगा। इसी का साथ यह भी तय हो गया कि नाटो का कोई भी सदस्य देश भी अपनी सेना नहीं भेजेगा, जबकि यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदिमिर जेलेंस्की ने बार बार अमेरिका व नाटो देश से सैन्य मदद की मांग की । यूक्रेन को मझेदार में अमेरिका ने अकेला छोड़ दिया। तर्क दिये जा रहे हैं या एक्सपर्ट इस बात को लेकर यह तर्क दे रहे हैं कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं है इसलिये अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी समेत कोई भी नाटो देश अपनी सेना नहीं भेज रहा है। लेकिन यहां सवाल उठता है कि ऐसी तर्क देने वालों को यह सोचना चाहिये कि क्या पाकिस्तान नाटो देश का सदस्य था, जो साल 1971 के युद्ध में अमेरिका ने अपनी पूरी फौज, वो भी परमाणु बम से सुसज्जित सातवां बेड़े के साथ पाकिस्तान के समर्थन और भारत के खिलाफ भेज दिया था। सवाल उठता है कि क्या कुवैत नाटो देश का सदस्य था, जो कुवैत के बहाने इराक के खिलाफ कार्रवाई की गई। विशेषज्ञों का कहना है कि अमेरिका सिर्फ दूसरे देशों को उकसाता आया है और उसका लाभ अपने व्यापार के लिये किया है। 

यूक्रेन को मदद क्यों नहीं की अमेरिका ने ?

रूस ने कभी नहीं कहा कि वह यूक्रेन पर हमला करने वाला है। राष्ट्रपति पुतिन सिर्फ यहीं कहते आये कि वे युद्धाभ्यास कर रहें है। लेकिन अमेरिका हीं वह देश है जो तारीख पे तारीख दे रहा था कि रूस इस दिन हमला करेगा। फिर नया तारीख...। जब अमेरिका के पास इतनी सूचनाएं थी तो वह यूक्रेन की मदद के लिये क्यों नहीं समय रहते आधुनिक हथियार सप्लाई किया? क्यों नहीं आर्थिक मदद की ? और क्यों नहीं अपनी सेना को भेजा? युद्ध के मझधार में फंस जाने के बाद रूस को धमकी देना और यूक्रेन को मदद करने का बयान देना। इसका क्या अर्थ रह जाता है। आखिर क्या वजह है कि अमेरिका यूक्रेन के राषट्रपति को मदद करने का आश्वसान देता रहा? क्या अमेरिका को रूस की सामरिक ताकत का अंदाजा नहीं था?  

दरअसल अमेरिका के पास यह जानकारी अच्छी तरह है कि रूस आर्थिक मामले में उससे भले हीं पीछे लेकिन सामरिक मामले में वह उससे कहीं से भी कम नहीं है। अमेरिका और रूस ऐसे दो देश हैं जो अपने घर बैठें हीं दुनिया के किसी भी देश को तबाह करने की क्षमता रखता है। 

सामरिक बादशाह रूस भी है : 

हथियार के मामले में सिर्फ अमेरिका हीं नहीं बल्कि रूस भी काफी सक्षम है। यदि यह कहा जाये कि रूस कई मामले में अमेरिका से आगे है तो गलत नहीं होगा। बतौर उदारहण रूस का मिसाइल डिफेंस सिस्टम एस-400 है। इसका तोड़ अमेरिका के पास भी नहीं है। इसके तोड़ के लिये अमेरिका और आधुनिक फाइटर विमान बनाने में लगा है। बताया जाता है कि रूस चाहे तो एक दिन में यूक्रेन की लड़ाई समाप्त कर देता लेकिन इसमें सेना के साथ साथ बड़ी संख्या में नागरिकों की भी जान चली जाती है। इसलिये उसने फादर ऑफ बम, परमाणु बम या अन्य घातक मिसाइलें तैनात करने की वजाय पारंपरिक युद्ध का सहारा लिया, जिसमें रूस के सैनिक भी हताहत हो रहे हैं। 

सिर्फ अपनी अर्थव्यवस्था को बचाये रखने की चिंता : 

यूरोप के शक्तिशाली देश हो या अमेरिका, इनका सिर्फ एक हीं उदेश्य होता है कि उनके देश को और उनके नागरिकों को किसी भी प्रकार का नुकसान न हो और बाहरी देशों की संपदा पर उनकी पड़ बनी रहे। इसी कड़ी में कुवैत, इरान व इराक के तेल कुओं पर अपना कब्जा जमाने के लिये हर प्रकार के हथकंडे अपनाये। अचानक अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली। उन्हें अन्य देशों की चिंता नहीं हुई। विशेषज्ञों का कहना है कि रूस और फ्रांस-जर्मनी के बीच गैस और तेल से संबंधित सीधा कारोबार है। और इस कारोबार पर अमेरिका अपना कब्जा चाहता था। जो अब संभव दिख रहा है। यूक्रेन के खिलाफ अभियान चलाने की वजह से रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिये गये हैं। ऐसी स्थिति में रूस-जर्मनी-फ्रांस के बीच कारोबार बने रहने की कम हीं संभावनाएं दिख रहा है। यूक्रेन अभियान में रूस की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। ऐसे में व्यापारिक लाभ सिर्फ अमेरिका का ही होगा।  

क्या है भारत की स्थिति : 

वर्तमान में भारत हीं एकमात्र ऐसा देश है जिसके अच्छे संबंध दोनो हीं देश रूस और अमेरिका के साथ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति के तहत दोनों ही देशों के साथ अच्छे संबंध को बनाये रखा है। पूरी दुनिया जानती है कि रूस और भारत के बीच घनिष्ठ संबंध है। जब बात निर्णायक मुद्दों की हो तो दोनों देशों का अलग होना संभव नहीं दिखता। यूक्रेन के खिलाफ रूस सैन्य अभियान पर भारत, चीन और यूएई ने तटस्थ रहने का निर्णय लिया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जब रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाया गया तो निंदा प्रस्ताव के पक्ष में 15 में से 11 वोट पड़े प्रस्ताव के समर्थन में, विरोध में वीटो पावर के साथ रूस के वोट थे यानी एक वोट। भारत, चीन और यूएई ने किसी के पक्ष में मतदान नहीं किया। इसको लेकर विशेषज्ञों की अपनी अलग-अलग राय है। सामरिक मामले में सिर्फ इसी बात से समझा जा सकता है कि रूस ने सदैव भारतीय हितों की रक्षा की है चाहे जम्मू-कश्मीर मामले में संयुक्त राष्ट्र में लगातार लाये जा रहे प्रस्ताव हो या पाकिस्तान से युद्ध हो। बतौर उदाहरण साल 1971 में अमेरिका, ब्रिटने समेत पूरा नाटो देश पाकिस्तान के साथ था। भारत की मजबूत स्थिति को तोड़ने के लिये नाटो देशों ने सभी प्रकार के आधुनिक हथियार, जहाज भेज दिये। ऐसे समय में सोवियत संघ (रूस) ने नाटो देशों के खिलाफ और भारत के समर्थन में अपनी सातवां बेड़ा और सैनिक तैनात कर दिये। इतना हीं नहीं अमेरिका को चेतावनी भी दे दी। इसके अलावा भारत और रूस मिलकर हथियारों के अलावा अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। रूस भारत को सिर्फ आधुनिक हथियार हीं नही देता बल्कि तकनीक भी देता है। दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है। इसलिये अमेरिका और नाटो देश भी इस बात को समझते हैं कि भारत और रूस की दोस्ती विशेष है। इस बीच भारत ने अमेरिका से भी अच्छे संबंध बनाये हैं। 

 रूस के दो दोस्त भारत और चीन :

कुटनीति की दुनिया को बारीकी से देखिये तो समझ आसानी से होगी। रूस और अमेरिका के बीच भारी दुश्मनी है लेकिन भारत के संबंध दोनों ही देशों के साथ अच्छे हैं। वहीं भारत और चीन के बीच दुश्मनी की स्थिति है। सीमा विवाद है लेकिन दोनों ही रूस के अच्छे मित्र हैं। चीन से भारी विवाद के बीच भी रूस ने भारत को एस-400 की सप्लाई शुरू कर दी। अमेरिका से संबंध खराब होने के बाद पाकिस्तान भी रूस से संबंध बनाने की कोशिश में । चीन और पाकिस्तान के बीच अच्छे संबंध हैं। लोग सवाल उठाते हैं कि चीन और भारत केबीच युद्ध की स्थिति में क्या रूस भारत का साथ देगा? ऐसी स्थिति में इतना तय है कि रूस भारत की मदद के लिये अमेरिका के खिलाफ अपनी सैनिक को भेज सकता है लेकिन चीन के खिलाफ शायद नहीं। और भारत के खिलाफ तो बिल्कुल नहीं। लेकिन एक बात तय है कि चीन से युद्ध होने पर भी रूस हथियारों की सप्लाई भारत को करता रहेगा। बतौर उदाहरण, अमेरिका और चीन दोनो ने हीं भारत को एस-400 देने का विरोध किया। अमेरिका प्रतिबंध लगाया लेकिन रूस ने भारत को अपना सबसे ताकतवर डिंफेंस सिस्टम एस-400 की सप्लाई शुरू कर दी। इतना हीं नहीं आर्थिक क्षेत्र में भी चाहे स्टिल प्लांट लगाना हो या अन्य उसमें रूस ने भारत की बड़ी मदद की। अपने इंजीनियर को भेज भारतीय इंजीनियरों को ट्रैनिंग दी। आर्थिक मदद दी। दूसरी ओर रूस और चीन केबीच भी सीमा विवाद जारी है।   

बहरहाल, रूस का अभियान लगातार तेज होता जा रहा है। शायद यह तबतक न थमे जबतक यूक्रेन रूस की शर्तों को स्वीकार न कर ले या यूक्रेन को सभी प्रकार के शस्त्रों से रूस मुक्त न कर दे। यानी यूक्रेन अपना अब कोई डिफेंस सिस्टम तैयार न करे। एक नजर नाटो देशों के सदस्यों पर, वर्तमान में 30 देश हैं - यूएस (1949), यूके (1949), फ्रांस (1949), इटली (1949), कनाडा (1949), बेल्जियम (1949), डेनमार्क (1949), आइसलैंड (1949), पुर्तगाल (1949), नॉर्वे (1949), नीदरलैंड्स (1949), लक्जमबर्ग (1949), तुर्की (1952), ग्रीस (1952), जर्मनी (1955), स्पेन (1982), पोलैंड (1999), चेक गणराज्य (1999), हंगरी (1999), बुल्गारिया (2004), एस्टोनिया (2004), स्लोवेनिया (2004), लात्विया (2004), लिथुआनिया (2004), रोमानिया (2004), स्लोवाकिया (2004), अल्बानिया (2009), क्रोएशिया (2009), मोंटेनेग्रो (2017), नॉर्थ मेसेडोनिया (2020)। 

नोट - लेखक राजेश कुमार, ग्लोबल खबर globalkhabar.com के संपादक व वरिष्ठ पत्रकार हैं। मीडिया में 27 वर्ष का अनुभव। इस बीच वे करंट न्यूज हिंदी, नवभारत टाइम्स, जी न्यूज, स्टार न्यूज व एबीपी न्यूज में लंबे समय तक कार्यरत रहे।