आरक्षण का मसला एक बार फिर चर्चा में है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में एक पांच सदस्यीय बेंच का गठन किया गया है, जो आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा पर फिर से विचार करेगा। गौरतलब हो कि संविधान में आरक्षण की सीमा को लेकर किसी तरह का कोई उल्लेख नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने एक निर्णय में यह कहा था कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती। यह फैसला 1978 में मंडल आयोग के गठन के पहले ही आ गया था। यही कारण है कि मंडल आयोग ने जब 1980 में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी, तो उसमें ओबीसी के लिए मात्र 27 फीसदी आरक्षण की ही सिफारिश की गई, जबकि आयोग ने पाया था कि ओबीसी की आबादी देश की कुल आबादी का 52 फीसदी है। चूंकि उसे आरक्षण की 52 फीसदी सीमा का अहसास था और साढ़े 22 फीसदी आरक्षण पहले से ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों को मिल रहा था, तो 50 फीसदी की सीमा को देखते हुए ओबीसी को देने के लिए कुल साढ़े 27 प्रतिशत आरक्षण ही बचा हुआ था। लिहाजा मंडल आयोग ने ओबीसी को 29 फीसदी आरक्षण तत्काल देने की सिफारिश की और यह भी कहा कि ओबीसी को 52 प्रतिशत आरक्षण मिले, इसे सुनिश्चित करने के लिए संविधान संशोधन कर 50 फीसदी के कैप को हटाया जाय।
लेकिन तब की इन्दिरा गांधी सरकार ने न तो ओबीसी को आरक्षण दिया और न ही संविधान संशोधन की 50 फीसदी की सीमा को हटाने के प्रति कोई दिलचस्पी दिखाई। 1990 में वीपी सिंह की सरकार ने ओबीसी को सरकारी सेवाओं मे 27 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी किया, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को सही मानते हुए एक बार फिर आदेश दिया कि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती। इस तरह से यह 9 सदस्यीय सांवैधानिक पीठ का आदेश है और इस आदेश के आधार पर ही केन्द्र और राज्य सरकारों के उस सारे निर्णयों को अदालतें खारिज करती रही हैं, जिनमें 50 फीसदी की इस सीमा का अतिक्रमण होता है। ओबीसी की तरफ से 27 फीसदी आरक्षण को बढ़ाकर 52 फीसदी करने का आंदोलन तो कभी हुआ नहीं, लेकिन दूसरी दबंग जातियां जो ओबीसी की सूची में नहीं आ पाई थीं, वह खुद आरक्षण पाने के लिए आंदोलन करती रही। उनके आंदोलनों के दबाव में राज्य सरकारों ने कई बार कभी सरकारी आदेश से तो कभी कानून बनाकर आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से अतिक्रमण करने की कोशिश की और अदालत ने हमेशा उस पर रोक लगाई।
इस बीच केन्द्र सरकार ने संविधान का एक संशोधन कराकर आरक्षण की परिधि से बाहर रही जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का संवैधानिक प्रावधान कर दिया और उन जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 फीसद का आरक्षण भी कर दिया। इस आरक्षण की परिधि में जाट, मराठा, पाटीदार और कापू जैसी वे सारी जातियां भी शामिल हैं, जो अपने को ओबीसी में शामिल करने या अलग से आरक्षण देने की मांग कर रही थी। लेकिन इस 10 फीसदी आरक्षण के बावजूद महाराष्ट्र के मराठों की मांग अपनी जगह बरकरार है कि उन्हें अपने लिए अलग से आरक्षण चाहिए। यहां गौरतलब है कि कथित आर्थिक आधार पर कथित अनारक्षित जातियों को 10 फीसदी का जो आरक्षण है उसे चुनौती देने वाली याचिका भी सुप्रीम कोर्ट के अधीन है। सुप्रीम कोर्ट ने उसकी समीक्षा करने के लिए भी एक बेंच का गठन किया है या गठन करने वाला है। और उसी बीच 50 फीसदी सीमा का यह मामला सामने आ गया है।
सुप्रीम कोर्ट के 5 सदस्यीय बेंच गठन करने के मामले में तकनीकी मामला यह है कि क्या यह बेंच 9 सदस्यीय बेंच के फैसले को पलटने में सक्षम है? क्या कोई छोटा बेंच किसी बड़े बेंच के फैसले को पलट सकता है? होना तो यह चाहिए था कि इसे 11 सदस्यीय बेंच के पास भेजा जाता और वह बेंच ही इसकी समीक्षा करने में सक्षम हो पाती। वैसे कथित आर्थिक आधार पर जो कथित अनारक्षित जातियों को दिए गए 10 फीसदी आरक्षण के खिलाफ जो याचिका है, उसमें भी 50 फीसदी का हवाला दिया गया है। याचिकाकत्र्ता का कहना है कि उससे 50 फीसदी की सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई सीमा को उल्लंघन है, इसलिए उसे अवैध और असंवैधानिक करार दिया जाय। यदि सुप्रीम कोर्ट अपने ही पुराने निर्णय पर अटल रहता है, तो 10 फीसदी के उस आरक्षण पर वह रोक लगा सकता है। लेकिन वह क्या करता है, इस का पता तो सुप्रीम कोर्ट में उसकी सुनवाई और फैसले के बाद ही लगेगा। वैसे संविधान संशोधन करके केन्द्र सरकार ने खुद आरक्षण की सीमा अब 60 फीसदी कर रखी है। तमिलनाडु में तो यह सीमा 69 फीसदी है। वहां सुप्रीम कोर्ट के पहले फैसले के पहले से ही 69 फीसदी आरक्षण मिल रहे थे। 1992 के मंडल मुकदमे में कोर्ट के फैसले के बाद तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता ने एक आरक्षण कानून विधानसभा से पास कराया, जिसमें 69 फीसदी आरक्षण का प्रावधान था। फिर उन्होंने उस कानून को संविधान की नौवीं सूची में शामिल करवा दिया। उस समय केन्द्र में नरसिंह राव की अल्पमत की सरकार थी, जो अस्तित्व के लिए तमिलनाडु के गैर कांग्रेसी सांसदों पर भी निर्भर थी। इसलिए केन्द्र सरकार ने तमिलनाडु के उस आरक्षण कानून को संविधान संशोधन कर नौवीं अनुसूची में डाल दिया और इस तरह उस 69 फीसदी आरक्षण के कानून को अदालत में चुनौती देने को ही नामुमकिन बना दिया।
अब आरक्षण से संबंधित दो मुख्य मामलों पर सुप्रीम कोर्ट को सुनवाई करनी है- एक मराठा आरक्षण का मामला और दूसरा 10 फीसदी आर्थिक आधार पर कथित अनारक्षित तबकों को दिए गए आरक्षण का मामला। दोनों में 50 फीसदी सीमा का मामला काॅमन है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या एक छोटा बेंच पहले दिए गए बड़े बेंच के आदेश को पलट सकती है? यदि नहीं, तो फिर इस कसरत का क्या मतलग है?
नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी
विचार हैं।)