पीएम का साहसिक कदम है जातीय जनगणना।

पीएम का साहसिक कदम है जातीय जनगणना।

प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह साहसपूर्ण कदम उठाने के लिए जाने जाते हैं। वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने बहुत ही साहसपूर्ण कदम उठाया था। उन नीतियों ने देश को ही बदल दिया। अमेरिका के साथ परमाणु करार करने के लिए तो उन्होंने अपनी सरकार को ही जोखिम में डाल दिया था। उस करार के बाद अमेरिका के साथ तो अभी तक कोई परमाणु रिश्ता नहीं बना है, लेकिन परमाणु व्यापार में भारत भागीदारी करने में सक्षम हो गया है। अप्रार संधि पर दस्तखत किए बिना भारत इस व्यापार में शामिल होने वाला एकमात्र देश है।
मनमोहन सिंह सरकार द्वारा जाति को जनगणना में शामिल करने का निर्णय भी एक बहुत ही बड़ा क्रांतिकारी निर्णय हैख् जिसका देश पर दूरगामी असर पड़ेगा। जाति को जनगणना में कोई पहली बार शामिल नहीं किया गया है। अंग्रेजों के जमाने में जब जनगणना की शुरुआत हुई थी, उस समय भी जाति के बारे में पता लगाया जाता था। जाति जनगणना के अंतिम आंकड़े 1931 ेके हैं। 1941 में अंग्रेजो ने जाति की गणना नहीं कराई, क्योंकि उस पर खर्च ज्यादा आता था। उस समय दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था और अंग्रेज सरकार पैसे की बचत युद्ध में लगाने के लिए करना चाहती थी। तब की केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को कहा कि उन्हीे राज्यों में जाति की गणना होगी, जहां की सरकारें उसके लिए भुबतान करेंगी।
आजादी के बाद सरकार ने जाति जनगणना बंद करा दी। जाति को विभाजित करने वाली संस्था माना गया और कहा गया कि इस पर जोर देने से देश कमजोर होगा। शायद उस समय के नीति निर्माता अपनी सोच में सही थे, लेकिन आजादी के बाद जाति और भी मजबूत होती गई। उसे कमजोर करने के लिए कोई ठोय उपाय नहीं किया गया। लोकतांत्रिक चुनावों में टिकट जातियों के हिसाब से बांटे जाने लगे और जो जातियां अपनी पहचान को दबाती रहीं, उनका नुकसान होता रहा और जिन जातियों ने अपनी ताल ठोकना जारी रखा वे राजनैतिक रूप से सशक्त होते गए। इससे जातियों के बीच में विषमता और भी बढ़ती गई। इसके कारण जातिवाद समाप्त होने के बदले और भी बढ़ता गया। इस तरह जाति गणना को तिलांजलि देकर जाति को कमजोर करने का जो उद्देश्य रखा गया था, व िपराजित हो गया।
पिछड़े वगों को दिया गया आरक्षण उस पराजय का ही परिणाम था। आरक्षण तो दे दिया गया, लंेकिन जाति की गणना को फिर भी स्वीकार नहीं किया गया। मंडल आयोग ने पिछड़े वर्गों के लिए सिर्फ आरक्षण की मांग नहीं की थी, बल्कि उन तबकों के लिए अनेक प्रकार की योजनाएं चलाने की मांग भी की थी और जाति जनगणना को उन कल्याणकारी योजनाओं को चलाने और सफल बनाने के लिए आवश्यक बताया था। वीपी सिंह सरकार ने आरक्षण लागू करने की घोषणा तो 1990 में कर दी, लेकिन 1991 में होने वाली जनगणना में जाति को शामिल करने का कोई आदेश जारी नहीं किया, जबकि जाति जनगणना आरक्षण से भी ज्यादा जरूरी थी, क्योंकि समाज के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण से ज्यादा जरूरी उनके लिए चलाई जाने वाली अन्य योजनाएं ही हो सकती हैं।
उसके बाद 2001 में भी जनगणना की गई, लेकिन आश्चर्य है कि उसमें भी जाति की उपेक्षा कर दी गई। भारत सरकार का साजाजिक न्याय मंत्रालय बार बार मांग करता रहा कि जाति की गणना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बना राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग भी मांग करता रहा कि जाति जनगणना कराओ, क्यांकि सटीक आंकड़े के अभाव में वे पिछड़े वर्गों में शामिल करने के लिए आने वाले आवेदनों पर सटीक निर्णय लेने में अपने आपको सक्षम नहीं पा रहे हैं। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का काम जातियों के पिछड़े वर्ग में शामिल होने के दावों की जांच करके उन पर अपना निर्णय करना है। उदाहरण के लिए जाट बहुत दिनों से मांग कर रहे हैं कि उन्हें केन्द्रीय सूची में भी पिछड़ा वर्ग में शामिल कर लिया जाय। उनके दावे पर सटीक निर्णय तभी हो सकता है जब उनकी जाति की संख्या और उनकी सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति के बारे में विश्वसनीय जानकारी हासिल हो।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग का एक काम उन जातियों को पिछड़े वर्ग की सूची से बाहर करना भी है, जो शेक्षणिक और सामाजिक रूप से तरक्की कर गउ हों और जिन्होंने सरकारी महकमों में उचित हिस्सेदारी शामिल कर ली हो। लंेकिन आंकड़ों के अभाव में पिछड़ा वर्ग आयोग यह काम कर ही नहीं सकता। यदि कोई जाति उसके सामने पिछड़े वर्गो में शुमार किसी अन्य जाति को सुची से बाहर करने की मांग करते हुए तर्क दे कि वह जाति अब शेक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी नहीं रही और सत्ता के केन्द्रों में उसकी उचित हिस्सेदारी भी हो गई है, तो उसके दावों को जांचना आयोग के लिए तब तक संभव नहीं होगा, जबतक कि उस जाति की संख्या उसकी शेक्षणिक स्थिति, उसकी आर्थिक स्थिति और सरकारी नौकरियों में उसके लोगांे की भागीदारी का सही आंकड़ा उसके पास उपलब्ध न हो। ये आंकड़े सिर्फ और सिर्फ जनगणना के द्वारा ही उपलब्ध हो सकते हैं।
जाहिर है मंडल मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश आने के बाद जाति जनगणना जरूरी हो गई थी। सुप्रीम कोटे ने भले ही इसके लिए आदेश जारी नहीं किए हो, लेकिन उसके अन्य आदेशों, खासकर सूची से सशक्त जातियों को बाहर करने के आदेश पर पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा अमल होने के लिए जाति जनगणना अपरिहार्य थी। इसके लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वग आयोग ने अनेक बार सरकार को चिटिठ्यां लिखीं, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। 2001 में वाजपेयी की सरकार थी। उस सरकार में राम विलास पासवान, नीतीश कुमा और शरद यादव जैसे जाति जनगणना के पक्षधर भी शामिल थे। पर आश्चर्य की बात है कि उस साल जाति की जनगणना नहीं हुई और किसी नेता ने उसकी मांग भी नहीं की।
दरअसल पिछड़े वर्गो के नेताओं को इसकी सुधि आज इसलिए आई है, क्योंकि वे आज सत्ता में नहीं हैं। उस समय सभी लोग सत्ता में थे। और जब वे सत्ता में होते हैंख् तो उनका एजेंडा ही बदल जाता है। जब वे सत्ता से बाहर रहते हैं, तब उनका एजेंडा कुछ और रहता है। इस बार उनमें से अधिकांश सत्ता में नहीं हैं, इसलिए उन्होंने जाति जनगणना के पक्ष में आवाज बुलंद की। भाजपा के नेतृत्व पर अब वाजपेयी और आडवाणी जैसे मजबूत नेताओं का नियंत्रण नहीं रहा, इसलिए गोपीनाथ मुंडे जैसे नेता ने संसद में जाति जनगणना की मजबूत मांग कर दी। महिला आरक्षण विधेयक पर सुषमा स्वराज की पार्टी के अंदर वैसे भी फजीहत हो रही है, इसलिए उन्होंने इस मामले पर चुप्पी साध ली और मैदान उपनेता गोपीनाथ मुडे के लिए खाली छोड़ दिया।
जाति जनगणना में अभी भी बाधा डाली जा सकती है। कुछ लोग कह करे हैं कि जाति की नहीं, सिर्फ पिछड़े वर्ग का कॉलम बनाकर यह पता लगा लिया जाए कि देश की कुल आबादी में पिछड़ा वर्ग कितना है। यदि ऐसा किया गया, तो इससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। पिछड़े वर्गोें में भी जो सबसे ज्यादा पिछड़े हैं, उनके बीच समाज कल्याण का काम सुचारू रूप से चलाने के लिए जाति जनगणना होनी चाहिए न कि पिछड़े वर्ग की जनगणना।