सख्त सजा के प्रावधान से नहीं रुकेंगे बलात्कार , जरूरत शीघ्र सजा के प्रावधान की है : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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सख्त सजा के प्रावधान से नहीं रुकेंगे बलात्कार , जरूरत शीघ्र सजा के प्रावधान की है :  वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

हैदराबाद के एक पशु चिकित्सक के बलात्कार और हत्या के बाद एक बार फिर देश भर में बलात्कार के खिलाफ उबाल है। निर्भया ज्योति सिंह के साथ जब 2012 में बलात्कार हुआ था, उस समय भी देश भर में उबाल आया था। उस समय बलात्कार को रोकने के लिए कड़े कानून बनाने के लिए एक वर्मा कमिटी बनी थी। उसने कुछ सिफारिशें की थी। उन सिफारिशों के आधार पर कानूनों को कड़े किए थे, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं हुआ। बलात्कार बदस्तूर जारी हैं। कभी कभी मीडिया के खास ध्यान के कारण या बलात्कार के साथ जुड़ी मौत और उसके पहले की गई पाशविकता के कारण बलात्कर हमारे सभ्य समाज को झकझोरने लगता है और समाज से आवाज उठने लगती है कि कानून को और कठोर करो। बलात्कारियों को फांसी दे दो। भावनाओं का एक बड़ा ज्वार उठता है और कुछ दिन के बाद शांत हो जाता है, लेकिन बलात्कार की घटनाएं नहीं थमतीं। सच तो यह है कि इस तरह की घटनाएं दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। अब रेप नहीं होते, बल्कि गैंग रेप होते हैं और वर्मा कमिटी की अनुशंसा पर कड़े किए गए कानूनों कारण रेप पीड़िताओं की हत्या कर देने की घटना अब ज्यादा होने लगी है। यानी जिस कानून को महिलाओं की रक्षा के लिए कड़े किए गए थे, वे कानून अब पीड़िताओं की मौत का कारण भी बनने लगे हैं।

यह सच है कि कानून कड़े करने से बलात्कार न तो रुके हैं और न ही रुकने वाले हैं। बलात्कारी के लिए फांसी का प्रावधान कर दो या उनकी बोटी बोटी काटने का प्रावधान कर दो, इस तरह की घटनाएं रुकने वाली नहीं, क्योंकि कानून तोड़ने वाले तोड़ते समय यह सोचते ही नहीं कि वे पकड़े जाएंगे। वे यह भी सोचते होंगे कि पकड़े जाने के बावजूद उनपर लंबा मुकदमा चलेगा और पीड़ित पक्ष शायद उतना लंबा मुकदमा लड़ने में दिलचस्पी न ले और वे बच जाएंगे। इसके कारण बलात्कारी मानसिकता के लोगों पर कड़े कानून का असर नहीं पड़ता। चूंकि मुकदमा बहुत लंबा चलता है और इस बीच पीड़िता की बहुत बदनामी होती है, इसलिए अधिकांश मामले में तो बलात्कार के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए पीड़ित पक्ष जाता ही नहीं है। और इसके कारण बलात्कारियों के हौसले और भी बढ़ जाते हैं और महिलाएं और भी असुरक्षित हो जाती हैं।

लेकिन बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए और महिलाओं को बलात्कारी मानसिकता के लोगों से सुरक्षित करने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही होगा। क्या करना चाहिए, यह सबको पता है, लेकिन कैसे किया जाए, इसे लेकर हमारे नीति निर्माता गंभीर नहीं। वे हल्ला मचाते हैं कि बलात्कारियों को फांसी दे दिया जाय, लेकिन फांसी देने की प्रक्रिया हमारे यहां इतनी लंबी है कि निर्भया ज्योति सिंह के बलात्कारियों को अभी तक फांसी नहीं दी गई है। उन्हें फांसी की सजा निचली अदालत ने दी थी। हाईकोर्ट ने भी सजा को बरकरार रखा और सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कारियों को कोई राहत नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट के बाद राष्ट्रपति के पास माफी की फरियाद के साथ बलात्कारी पहुंचे। दिल्ली सरकार ने राष्ट्रपति को कहा है कि उन्हें माफ नहीं किया जाय। इन सारे मामले में 7 साल से भी ज्यादा हो गए हैं, लेकिन अभी तक बलात्कारियों को सजा नहीं मिली है और इस 7 साल के दौरान बलात्कार की हजारों घटनाएं देश में घट चुकी हैं। निर्भया के मामले पर देश में बहुत हल्ला हंगामा हुआ था, उसके बावजूद यह हाल है। हम अनुमान लगा सकते हैं कि जो घटनाएं लोगों की नजरों में नहीं चढ़तीं, उनका क्या होता होगा।

और यदि सजा देने में हमारी न्याय व्यवस्था इतना विलंब करेगी, तो फिर बलात्कारी मानसिकता के लोग डरेंगे क्यों? कहा जाता है कि विलंबित न्याय का मतलब है न्याय का नहीं हो पाना। भारत में यही हो रहा है। अपराध पीड़ितों के साथ न्याय हो ही नहीं पाता, भले अदालत कभी कभी अपराधियों को सजा सुना देती है। सजा देने का एक उद्देश्य यह भी होता है कि इसके कारण अन्य लोग अपराध करने से डरेंगे और इस तरह का अपराध नहीं होगा। लेकिन यदि विलंबित न्याय के कारण डर का यह भाव समाप्त हो जाता है और फिर सजा एक व्यक्तिगत मामला बनकर रह जाती है और इसका समाज पर प्रभाव नहीं पड़ता।

इसलिए यदि हम चाहते हैं कि बलात्कारियों के मनोबल टूटे, तो सजा सख्त करने के बदले शीघ्र सजा के प्रावधान करने की मांग करनी चाहिए। बलात्कार के बाद यदि बलात्कारी गिरफ्तार हो जाए, तो उसकी गिरफ्तारी के चंद दिनों के अंदर ही उसे सजा हो जानी चाहिए और अपीलीय अदालतों में भी जल्द सुनवाई करके एक निश्चित अवधि में सजा हो जानी चाहिए। निर्भया ज्योति सिंह के बलात्कारियों को पुलिस ने जल्द ही पकड़ लिया था। जरूरी सबूत भी इकट्ठे कर लिए थे। अपराध का एक साक्षी भी मौजूद था और बतौर गवाह उसने अदालत में अपराध की आंखों देखी कहानी भी कही। इसके बावजूद इतना विलंब क्यों? हमारी न्याय व्यवस्था इतनी सुस्त क्यों और यदि सुस्त है, तो इसे तेज करने की जिम्मेदारी किसकी है? संसद में कानून बनाकर न्याय व्यवस्था को तेज क्यों नहीं किया जा सकता अथवा खुद सुप्रीम कोर्ट आदेश देकर कानूनी प्रक्रिया को तेज करने का प्रावधान क्यों नहीं तैयार कर सकता? हमारे नीति निर्माताओं और सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों को इसका जवाब देना चाहिए। ताजा मामले में भी चारों बलात्कारी हत्यारे गिरफ्तार हो चुके हैं। उनके खिलाफ गवाह और सबूत भी उपलब्ध है, तो फिर उन्हें अबतक मुकदमा चलाकार सजा क्यों नहीं दी गई? हम इसके लिए जांच और अदालती प्रक्रिया को दोष देते हैं, लेकिन जांच तो पूरी हो चुकी है और जो विलंब होगा, वह अदालती प्रक्रिया के कारण ही होगा। सवाल उठता है कि अदालती प्रक्रिया को सुस्त रखने के गुनाहगार कौन हैं? क्या वे लोग इस तरह की घटनाओं के लिए जिम्मेदार नहीं? सच तो यह है कि व्यवस्था को संभाल रहे लोग ही असली गुनाहगार हैं। कठोर कानून के लिए उनपर दबाव बनाने की मांग करने से बेहतर होगी कि शीघ्र सजा के लिए हम उनपर दबाव बनाएं।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)