प्रदूषण के गुनाहगार जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए : वरिष्ठ पत्रकर उपेन्द्र प्रसाद

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प्रदूषण के गुनाहगार जिम्मेदारी तो तय होनी ही चाहिए : वरिष्ठ पत्रकर उपेन्द्र प्रसाद

पिछले कई सालों से प्रदूषण दिल्ली की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। इसे हल करने की कोशिश में सुप्रीम कोर्ट ने तो एक बार डीजल से चलने वाले सार्वजनिक वाहनों को पूरी तरह दिल्ली में बंद भी करवा दिया था। सरकारी स्तर पर भी पेड़ लगाने का काम शुरू हुआ था और आज दिल्ली पहले से ज्यादा हरी भरी है। लेकिन उन प्रयासों के बावजूद प्रदूषण का मर्ज बद से बदतर होता जा रहा है। पिछले कुछ सालों से प्रदूषण ने यहां मारक रूप अख्तियार कर लिया है और इसके कारण कितने लोग मर रहे हैं, उसका सही आंकड़ा तक सरकार के पास नहीं है।

फिलहाल पिछले तीन चार सालों से प्रदूषण ने बहुत ही भयंकर रूप ले लिया है। यह सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है, बल्कि उत्तर भारत की लगभग पूरी भूमि प्रदूषण की चपेट में जा जाती है और जिन शहरों में प्रदूषण मापने के यंत्र लगे हुए हैं, वे बहुत ही डरावने रीडींग देने लगते हैं। प्रदूषण को आमतौर पर शहरों की समस्या माना जाता है, इसलिए हम यह मानकर चलते हैं कि गांवों में यह नहीं होगा। हो सकता है यह सच हो, लेकिन यदि वहां भी हम वायु प्रदूषण यंत्र लगा दें, तो कुछ गांवों के आंकड़े चिंता करने वाले आ सकते है।

बहरहाल हम अभी चिंता दिल्ली सहित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की बात कर रहे हैं। पिछले रविवार इस पूरे क्षेत्र के लिए एक काला रविवार बनकर आया और वायु प्रदूषण का वह स्तर देखने को मिला, जिस पर सहज विश्वास करना किसी के लिए आसान नहीं है। ऐसा प्रदूषण कभी दिल्ली में न तो देखा गया था और न सुना गया था। सच तो यह है कि इसकी कल्पना भी नहीं की गई होगी। 500 से ज्यादा के स्तर को प्रदूषण वैज्ञानिकों ने मेडिकल आपातकाल का स्तर घोषित कर रखा है, लेकिन इससे भी दुगना और कभी कभी तो तीन गुना स्तर भी देखने को मिला। जाहिर है, हवा पूरी तरह जहरीली हो चुकी थी और इसके असर दिल्ली और आसपास के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में रह रहे करोड़ों लोगों पर पड़ना भी शुरू हो गया है और आने वाले दिनों में भी यह लोगों के स्वास्थ के साथ खिलवाड़ करता रहेगा।

यह प्रदूषण कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है, जिस पर हमारा वश नहीं चले। यह पूरी तरह से मानव निर्मित है और हमलोग ही इसके जिम्मेदार भी हैं। चाहें, तो इससे बच सकते हैं और बचना भी चाहते हैं पर सवाल उठता है कि बचने के लिए कुछ करते क्यों नहीं? अभी से तीन साल पहले दिल्ली के कुछ डॉक्टरों ने 500 स्तर से ज्यादा जाने पर मास्क पहनकर राष्ट्रपति भवन के पास विजय चैक पर मार्च किया था और हमारे नीति निर्माताओं को यह बताने की कोशिश की थी कि हम किसी प्रकार की बर्बादी और तबाही के फेज में पहुंच चुके हैं। यदि हमारे नीति निर्माताओं ने इसे गंभीरता से लिया होता, तो वह काला रविवार हमें नहीं देखना पड़ता, जो 3 नवंबर को देखना पड़ा।

प्रदूषण के लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैं। कुछ पर तो हमारा वश है और कुछ पर नहीं है। जिस पर वश नहीं है, उस पर तो हम कुछ नहीं कर सकते, लेकिन जिस पर वश है, उस पर भी कुछ नहीं किया गया है। यह हमारे नीति निर्माताओं की ओर से किया गया एक अपराध है। वैसे तो प्रदूषण के लिए सालों पर चलने वाले वाहन मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं, जिनकी संख्या दिल्ली और उससे जुड़े राजधानी क्षेत्र में तेजी से बढ़ती जा रही है। मोटर उद्योग को कोई क्षति न हो और उसमें काम करने वाले लाखों लोगों की रोजी रोटी प्रभावित नहीं हो, इसके कारण उस पर कोई अंकुश लगाने से सरकार डरती भी है। उसका यह डर समझ में आता है। वह इंधन की स्वच्छता पर जोर देती है। इसके कारण स्थिति कुछ अच्छी भी हुई थी, लेकिन वाहनों की बढ़ती संख्या हुए फायदे को समाप्त कर देती है।

दिल्ली और एनसीआर में पड़ोसी हरियाणा और पंजाब में किसानों द्वारा पराली जलाने के कारण भी नवंबर महीने में प्रदूषण का स्तर तेजी से एकाएक बढ़ जाता है और उसके बाद मौसम में नमी, गिरते तापमान और कमजोर होती हवा की गति के कारण वह प्रदूषण दिल्ली को अपना आवास बना लेता है और फरवरी तक एनसीआर के लोग उसकी छत के नीचे रहने को अभिशप्त हो जाते हैं। दिल्ली के साथ एनसीआर को विकसित कर प्रदूषण की समस्या और हमारे नीति निर्माताओं ने और भी गंभीर कर दिया है। यदि दिल्ली के इर्द गिर्द खाली स्थान होते तो प्रदूषित हवा वहां से जल्द बाहर चली जाती, लेकिन एनसीआर के विकास ने पूर क्षेत्र को ही प्रदूषित कर दिया है। एक क्षेत्र का प्रदूषण दूसरे क्षेत्र को भी प्रदूषित कर देता है और वह आसानी से निकल भी नहीं पाता। हवा की दिशा बदलने के साथ वायु प्रदूषण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में अपना स्थान बदलते रहता है।

 

पराली से निपटने के लिये दवाईयां हैं लेकिन इसका प्रचार-प्रसार नहीं : 

फिलहाल बात पराली की हो रही है। जब इसे मुख्य कारण के रूप में स्वीकार किया गया था, तो हमारे कृषि वैज्ञानिकों ने एक दवा विकसित की, जो बहुत ही सस्ती है। उस दवा को धान कटाई के बाद यदि खेतों में डाला जाय, तो पराली सड़कर मिट्टी में मिल जाती है और उसकी उर्वरकता भी बढ़ा देती है। लेकिन हमारे नीति निर्माताओं ने इस दवाई की जानकारी किसानों को उपलब्ध नहीं कराई है और न ही इसके उत्पादन में दिलचस्पी दिखाई है। इसके बदले किसानों को महंगी मशीनें खरीदने के लिए कहा जा रहा है, जिन्हें खरीदना उनके वश से बाहर की बात है। प्रदूषण हटाने के नाम पर ये लोग एक तरफ मशीन बनाने वाले पूंजीपतियों की जेब भरना चाहते हैं और दूसरी और किसानों पर कर्जबोझ डालकर उन्हें बर्बाद करना चाहते हैं और दवाई खरीदने का सस्ता विकल्प है, उसकी जानकारी तक किसानों को उपलब्ध कराना जरूरी नहीं समझते।

आखिर यह सब कौन कर रहा है? किसानों पर कर्ज का बोझ कौन डालना चाह रहा है? सरकारी खजाने को उन मशीनों की सब्सिडी में कौन खाली करना चाह रहा है और दवाइयों की सच्चाई कौन छुपा रहा है? और लोगों को प्रदूषण के कुएं में कौन धकेल रहा है? वैसे लोगों का पता लगाया जाना चाहिए और जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)