भारत को फिर चाहिए ऐसा ही 'गांधी' : वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण कुमार।

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 भारत को फिर चाहिए ऐसा ही 'गांधी' : वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण कुमार।

पूरा राष्ट्र मोहनदास करमचंद गांधी जिन्हें हम सब प्यार से बापू करते हैं की 150वीं जयंती मना रहा है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि सत्य और अहिंसा के जो महान आदर्श बापू ने स्थापित किए थे और जिन आदर्शों के बूते भारत को गोरों से आजादी दिलाई थी उसकी वजह से दुनिया के अधिकांश देशों में उन्हें पूजा जाता है। लेकिन भारत में गांधी को लेकर जिस तरह की बहस छिड़ी हुई है उससे यह महसूस होता है कि भारत को बापू जैसा ही एक और गांधी की जरूरत है जो आज की पीढ़ी को बता सकें कि भारत जैसे देश में गांधी होने का मतलब क्या होता है। गांधी को लेकर देश के अंदर जिस तरह की गलतफहमियां हाल के कुछ वर्षों में पैदा की गईं हैं वह हमें देश के अंदर और देश के बाहर शर्मसार करती है। गांधी पर आरोपों की फेहरिस्त तो काफी लंबी है लेकिन दो-तीन बातें जो मन को विचलित करती है उसपर विचार करना जरूरी है। मेरा मानना है कि जो लोग इस तरह की बात कर रहे हैं वो या तो गांधी को जानते नहीं हैं, गांधी को समझते नहीं हैं या फिर गांधी के खिलाफ जो एक खास वर्ग के लोग भ्रम फैला रहे हैं उसके शिकार हो रहे हैं। बड़ी सरल और सहज भाषा में बात की जाए तो मैं जिस गांधी को जानता हूं वो 'सादा जीवन उच्च विचार, संयम बरतें रहें उदार' है। गांधी एक विचार हैं। गांधी एक दर्शन हैं जीवन जीने का दर्शन। सत्य और अहिंसा के प्रतीक हैं गांधी।  

एक बात जो बार-बार की जाती है कि देश के विभाजन के लिए गांधी ही जिम्मेदार थे सही नहीं है। इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है। इतिहास इस बात का गवाह है कि वर्ष 1946 में जिस वक्त गांधी नोआखली में सांप्रदायिक सद्भाव बनाने की कोशिश कर रहे थे, उस समय उनके आसपास रहने वाले तमाम बड़े राजनीतिक चेहरे दिल्ली में लॉर्ड माउंटबेटन के साथ बैठकर भारत की आजादी को अंजाम देने में लगे थे। गांधी जब तक दिल्ली लौटते, माउंटबेटन भारती की आजादी के साथ-साथ देश के बंटवारे की बुनियाद भी रख चुके थे। गांधीवादी लेखक कुमार प्रशांत के एक लेख के मुताबिक, गांधी को इस बात का आभास हो गया था कि उनकी पीठ पीछे कुछ बड़ा खेल हुआ है क्योंकि सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद तीनों का व्यवहार बदल सा गया था। कोई उनसे खुलकर इस बारे में बात करने से कतरा रहा था। दरअसल उस वक्त तक कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच बंटवारे पर सहमति बन चुकी थी। दस्तावेज पर कांग्रेस की ओर से मौलाना आजाद, लीग की ओर से मोहम्मद अली जिन्ना और अंग्रेजों की ओर से लॉर्ड माउंटबेटेन साइन कर चुके थे। इसके बावजूद गांधी ने विभाजन को रोकने की हर कोशिश की। गांधी माउंटबेटन से मिले और जब कहा कि आप लोगों ने जो भी तय किया है वह ठीक है, लेकिन मेरा सिर्फ इतना निवेदन है कि आप इस काम में जल्दबाजी न करें तो माउंटबेटन ने गांधी को जवाब दिया कि मैं किसी जल्दबाजी में नहीं हूं। मुझे एक कैलेंडर दिया गया है जिसके भीतर मुझे काम करना है। इसके बाद गांधी जिन्ना से मिले और कहा कि तुम किस बात के लिए परेशान हो रहे हो। तुम पाकिस्तान चाहते हो, वह तुम्हें मिल जाएगा। लेकिन पहले इन अंग्रेजों को बाहर जाने दो। इन्हें बीच में मत डालो। जिन्ना ने बापू को यह जवाब देकर चौंका दिया कि अंग्रेज हैं तभी तो मेरे पाकिस्तान की गारंटी है। वे चले गए तो पता नहीं आप लोग क्या करेंगे। गांधी इतने पर भी हार नहीं माने और पटेल व नेहरू से मिले। अपने विचारों से अवगत कराया और कहा कि तुम लोग जाकर माउंटबेटेन से कहो कि आप भारत की आजादी का ऐलान कीजिए और देश की बागडोर जिन्ना को दे दीजिए। तुम दोनों जिन्ना से कहो कि आप पीएम बन जाइए, हम आपका समर्थन करेंगे। इस पर सरदार पटेल ने गांधी से कहा- बापू आप कह रहे हैं तो हम आपकी बात नहीं काटेंगे। लेकिन यह बात देश को आपको बतानी होगी। उसके बाद देश में जो विद्रोह होगा उसका मुकाबला हम नहीं कर पाएंगे। यह काम आपको खुद करना होगा। अंत में गांधी अफने समाजवादी शिष्यों राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी की ओर देखते हैं जो कांग्रेसी विचारधारा के विरोधी होने के बावजूद आजादी की इस लड़ाई के चलते उनके करीब आए थे। गांधी ने उनसे कहा कि अगर आप लोग मेरा साथ दें तो मैं जान की बाजी लगा सकता हूं, लेकिन वहां से भी गांधी को खाली हाथ लौटना पड़ा। अब गांधी के सामने विभाजन को रोकने का कोई विकल्प नहीं था। बंटवारे के बाद भी गांधी ने दोनों देशों के बीच इस बंटवारे को रोकने की कोशिश की। गांधी का कहना था कि वह बिना वीजा और पासपोर्ट के पाकिस्तान जाएंगे जिससे वह भारत-पाक विभाजन की वैधानिकता और राजनीतिक सीमा को तोड़ सकें। उनकी सोच थी कि दोनों देश अपनी-अपनी जगह रहें, लेकिन दोनों देशों के लोग बिना किसी रोक-टोक के एक दूसरे के यहां आ जा सकें। उन्होंने अपने दो विश्वसनीय सहयोगियों को जिन्ना से मिलने पाकिस्तान भेजा लेकिन इससे पहले कि वे दोनों लोग जिन्ना का संदेश लेकर लौट पाते गांधी की हत्या कर दी गई और विभाजन के इस दर्द को दिल में समेट इस दुनिया से विदा हो गए।

गांधी हमेशा कहते थे कि अगर मैंने जुर्म किया है तो मैं उसकी सजा भुगतने के लिए तैयार हूं। चौरी-चोरा कांड की भी पूरी जिम्मेदारी खुद लेते हुए उन्होंने कहा था कि मुझे सजा दे दो। अब आज अगर कुछ लोग यह सवाल उठाते हैं कि गांधी ने भगत सिंह को बचाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किया तो इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि जो शख्स खुद को कभी बचाने का प्रयास नहीं किया वो किसी और को कैसे बचा सकता है। गांधी जब जेल में थे तभी भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी थी। 26 जनवरी 1931 को गांधी जब रिहा हुए तो उसके बाद मार्च में गांधी-इरविन समझौता हुआ। इसके बारे में कहा यह जाता है कि गांधी को यह समझौता तोड़ देना चाहिए था। भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी की सजा को रुकवाने को पूर्व शर्त बना देनी चाहिए थी लेकिन यह स्पष्ट रूप से गांधी-इरविन समझौते में था कि हिंसक क्रांतिकारी गतिविधियों में जो लोग शामिल हैं उन्हें नहीं छोड़ा जाएगा। जबकि जो अहिंसक सत्याग्रही थे गांधी-इरविन समझौते के तहत ऐसे करीब 90 हजार राजनीतिक कैदियों की रिहाई हुई। सुभाष चंद्र बोस ने 'इंडियन स्ट्रगल' में लिखा है कि गांधीजी अपनी ओर से जितना प्रयास भगत सिंह को बचाने के लिए कर सकते थे किया था। जब तक इरविन ने फांसी के ऑर्डर पर दस्तख्त नहीं किए थे उससे पहले गांधीजी ने तीन चिट्ठियां लिखी थीं। उसमें उन्होंने इरविन को कहा कि फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दीजिए। 18 फरवरी, 19 मार्च और 23 मार्च 1931 को ये चिट्ठियां लिखी गई थी। इरविन ने यह नहीं माना।

एक अंतिम बात, क्या गांधी तकनीक के विरोधी थे? नहीं, गांधी ने बार-बार इस बात का जिक्र किया कि हम तकनीक के खिलाफ नहीं हैं। हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि यह तकनीक कहीं इंसान पर हावी न हो जाए। पश्चिमी तकनीक और पश्चिमी बाजार को गांधी हमेशा  संदेह की दृष्टि से देखते थे। इस विरोध के पीछे गांधी की अपनी सोच और दूरगामी योजना थी। गांधी के लिए स्वराज और आजादी का मतलब सिर्फ मानचित्र पर एक अलग मुल्क का होना भर नहीं था। वह चाहते थे देश भी आजाद हो और देश के लोगों की सोच भी आजाद हो। इसी संकल्प को बल प्रदान के लिए वह ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने, देश के अंदर बने उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा देने की बात करते थे। इस नजरिये से पश्चिम चीजों का विरोध जरूरी था। 1909 में गांधी की लिखी किताब को पढ़े तो आप पाएंगे कि उनका पश्चिमी तकनीक के खिलाफ सत्याग्रह था। उनकी सोच थी कि अगर हम पश्चिम तकनीक और बाजार से जुड़े रहेंगे तो फिर लोगों को अपनी अहमियत और मौलिकता का आभास नहीं होगा, जो किसी भी स्वतंत्र समाज की पहली जरूरत होती है। अंग्रेजों की साजिश भी थी कि वह हमें मशीनों पर इस तरह निर्भर करें जिससे हम कभी उबर नहीं पाएं। एक तरह से हमारे हुनर और कारोबार को समाप्त कर दिया गया था। गांधी ने इस चुनौती को पहले ही भांप लिया था। उन्होंने लोगों के बीच पश्चिमी तकनीक के विरोध को अस्मिता से जोड़ा। लोगों में राष्ट्रीय भावना को जगाया। गांधी का यह स्पष्ट मानना था कि मशीन इंसानी सोच को नियंत्रित करती है। एक सीमा में बांधती है। वह मशीन पर निर्भरता को खुली सोच में सबसे बड़ी बाधा मानते थे। ऐसी सोच के पीछे गांधी का अपना आधार था। गांधी की इस सोच को नजरंदाज करने का ही दुष्परिणाम है कि बेरोजगारी चरम पर है। हर काम मशीन कर दे रहा है। इंसान मशीन का पुतला भर रह गया है।

बहरहाल, बहुत से लोग यह सवाल पूछते हैं कि आज अगर गांधी होते तो क्या करते? निश्चित रूप से इस सवाल का जवाब देना कठिन है लेकिन इस बात पर गौर करिए कि गांधी की हत्या के सात दशक से अधिक वक्त बीत जाने के बाद भी आज अगर वो इतने प्रासंगिक हैं तो तय मानिए कि आज अगर गांधी होते तो इस देश की दशा और दिशा कुछ और होती। अगर आप गांधी को पढ़ेंगे तो आप पाएंगे कि वह हमेशा कहते थे, 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं क्योंकि पापी को खत्म कर दोगे तो भी पाप बचा रह जाएगा लेकिन पाप खत्म कर दोगे तो पापी पैदा ही नहीं होंगे।' निश्चित रूप से इस कथन में गांधी बदलाव की बात कर रहे हैं। गांधी मन को बदलने की बात कर रहे हैं। गांधी आज होते तो शायद आतंकवाद को नए नजरिए से देखने की बात करते। जब डाकू बदल सकता है तो आतंकी क्यों नहीं बदल सकता। गांधी इस बात को हमेशा मानते थे कि हर व्यक्ति को अपने सत्य की पहचान खुद करनी होती है। गांधी आतंक की राह पर चलने वाले से कहते कि अपने सत्य को पहचानो, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनो, किसी और के सच पर मत चलो। कहने का मतलब यह कि आज हम जिस गांधी की 150वीं जयंती मना रहे हैं वो गांधी आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना 75 साल पहले। आज भी देश का ऐसा गांधी चाहिए और कल भी।