मुजफ्फरपुर बलात्कार गृह नीतीश के पाखंड का पर्दाफाश - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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मुजफ्फरपुर बलात्कार गृह नीतीश के पाखंड का पर्दाफाश - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

(नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक उपेन्द्र प्रसाद)। मुजफ्फरपुर की एक बालिका गृह में रह रही 44 बच्चियों में से कम से कम 34 बच्चियों के साथ बलात्कार का मामला सामना आया है। वह बालिका गृह एक एनजीओ चलाता है, लेकिन से राज्य की नीतीश सरकार से 34 लाख रुपये सालाना उस गृह के रखरखाव और बच्चियों पर खर्च करने के लिए मिलता है। उसमें उन बच्चियों को रखा जाता है, जो अपने मां-बाप से बिछुड़कर सड़कों या रेलवे स्टेशनों पर भटकती हुई पुलिस को मिलती है। उनके मां- बाप को उन्हें सौंपने तक उन बच्चियों को पुलिस मुजफ्फरपुर की कथित बालिका गृह जैसे संस्थानों को सुपुर्द कर देती है। कहने को तो सामाजिक कार्यों में लगे लोग उस तरह के अस्थाई शेल्टर होम चलाते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में पैसे सरकार के ही खर्च होते हैं।
मुजफ्फरपुर को वह अस्थाई शेल्टर होम भी बिहार सरकार के पैसे से ही चल रहा था। जितना उस शेल्टर होम पर उस एनजीओ का खर्च होता था, उससे कहीं ज्यादा सरकार से उसे मिल भी जाता था। खर्च एनजीओ की जेब से होता था या सरकारी खजाने से- यह सवाल अब उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण यह तथ्य है कि वहां लड़कियों के साथ दरिंदगी की जा रही थी और 6 या 7 साल की मासूमों तक से बलात्कार किया जा रहा था। मेडिकल जांच में इसकी पुष्टि हो चुकी है कि जिन बच्चियों के साथ बलात्कार हुए उनकी उम्र 6 साल से 18 साल के बीच थी। उन बलात्कारियों में एक उस एनजीओ का संचालक ब्रजेश ठाकुर भी था। उस गिरफ्तार कर लिया गया है।
उस बालिका गृह में लड़कियों को उस एनजीओ के भरोसे ही नहीं छोड़ा जाता था, बल्कि यह सुनिश्चित करने की भी व्यवस्था वहां मोजूद थी कि उन लड़कियों के साथ वहां कोई ज्यादती न हो और उसे सुरक्षित माहौल मिलता रहे। लेकिन बालिकाआंे के हितों की रक्षा के लिए जिला स्तरीय एक समिति भी थी, जिसका काम बालिका गृहों की निगरानी करते रहना था, लेकिन जिन लोगों के ऊपर उन बालिकाओं की निगरानी की जिम्मेदारी थी, वे भी बलात्कार में लिप्त पाए गए। एक अधिकारी तो गिरफ्तार होने के बाद जेल में बंद है और एक अन्य अधिकारी, जो उस समिति का अध्यक्ष था, वह फरार है। मजिस्ट्रेट के स्तर पर भी उसकी देखभाल करने की व्यवस्था थी, लेकिन मजिस्ट्रेट वाली वह व्यवस्था भी विफल साबित हुई।
कहने की जरूरत नहीं कि उस बालिका गृह में दरिंदगी की इंतिहां हो रही थी। मासूम बच्चियों के साथ बार बार बलात्कार हो रहे थे। उस बालिका गृह को वेश्यालय में तब्दील कर दिया गया था। वह एक ऐसा वेश्यालय बन गया था, जिसमें रह रही बालिकाएं वेश्या नहीं थी, बल्कि अपने मां-बाप और घर वाले से बिछड़ी हुई बच्चियां थीं, जिन्हें उनके परिवार से मिलाना राज्य की जिम्मेदारी थी। लेकिन राज्य अपनी जिम्मेदारी किस तरह निभा रहा था, अब सबके सामने आ गया है। उस दरिंदे को 34 लाख रुपये सालाना उन बच्चियों के नाम से ही सरकारी खजाने से दिया जा रहा था। वह दरिंदा तीन अखबार भी निकालता था, जिसकी कोई काॅपी नहीं बिकती थी। दो या तीन सौ प्रतियां निकालकर सरकारी दफ्तरों में भेज दिया जाता था और बदले में सरकार से उन तीनों अखबारों को करोड़ों रुपये का विज्ञापन मिल रहा था।
यानी सरकार अपने दोनों हाथों से उस दरिंदे के ऊपर सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये लुटा रही थी। यह जांच का विषय है कि पिछले कुछ वर्षो में सरकारी खजाने से उस दरिंदे को कितने का भुगतान हुआ। एक रिपोर्ट के मुताबिक बलात्कार कांड की जांच कर रही एजेंसी सीबीआई ने नीतीश सरकार से उसके एनजीओ और अखबारों को 2010 और उसके बाद मिले पैसे का हिसाब मांगा है। कहने की जरूरत नहीं कि अब तक करोड़ों रुपये उसे मिल चुका है। उसके पास और भी शेल्टर होम है, जिसके लिए भी पैसा मिला है।
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि जब वह दरिंदा जेल में था और उसके एनजीओ की गतिविधियां जगजाहिर हो गई थी, उसी समय उसे भिखारियों को आश्रय प्रदान करने के लिए एक लाख रुपये सालाना अनुदान सरकार द्वारा स्वीकृत हो गया। यानी बच्चियों के बलात्कार के जुर्म में गिरफ्तार ब्रजेश ठाकुर को भिखारियों को शेल्टर देने के योग्य सरकार ने मान लिया। इसी से पता चलता है कि नीतीश सरकार में अपराधियों को संरक्षण दे रही है।
इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की चुप्पी है। सुशासन का दावा करने में वे किसी से पीछे नहीं रहते। कभी भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हुए भाजपा के खेमे में चले जाते हैं, तो कभी सांप्रदायिकता का राग अलापते हुए भाजपा के खेमे को छोड़ देते हैं। लेकिन उनकी सरकार एक दरिंदे को वित्तपोषित कर रही थी, इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। यह नीतीश कुमार की आपराधिक चुप्पी है। वे कह सकते हैं कि उनका प्रशासन तंत्र क्या कर रहा है, इससे वे कभी भी अनजान भी रहते हैं, लेकिन ऐसा कहने की भी उनकी
हिम्मत नहीं हो रही है।
इसका कारण भी स्पष्ट है। वह ब्रजेश ठाकुर के एनजीओ को मिल रहे पैसे और वहां चल रही गतिविधियों से तो अपना पल्ला झाड़ सकते हैं, लेकिन उसके अखबारो को मिले करोड़ों के विज्ञापनों से पल्ला नहीं झाड़ सकते, क्योकि अखबारो को दिए जाने वाले विज्ञापनों पर उनका पूर्ण नियंत्रण रहा है और इस समय विज्ञापन जारी करने वाला पब्लिक रिलेशन्स डिपार्टमेंट का मंत्रालय भी आज उनके ही पास है। इस सवाल का उनके पास कोई जवाब नहीं होगा कि ऐसे प्रकाशनों को करोड़ों के विज्ञापन कैसे मिल गए, जिसके अखबार बाजार में आते ही नहीं।
सच तो यह है कि नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता संभालते ही विज्ञापनों के माध्यम से अपने चहेतों को खुश करना शुरू कर दिया। सालाना विज्ञापन की राशि कई गुना बढ़ गई। शक नहीं कि इसका फायदा असली अखबारो को हुआ, लेकिन उसकी आड़ में अनेक फेक अखबारों और प्रकाशनों को भी करोड़ों रुपये दिए गए और यह सब नीतीश कुमार के आदेश पर ही हुआ। जिन अपराधियों में विज्ञापन के नाम पर नीतीश ने करोड़ों बांटे उनमें एक वह ब्रजेश ठाकुर भी था। अब उसी ठाकुर ने भ्रष्टाचारमुक्त शासन देने के नीतीश के पाखंड का पर्दाफाश कर दिया है।
(उपेन्द्र प्रसाद  - लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीति व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्धारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है। और ये उनके निजी विचार हैं।