मॉब-लिंचिंग पर रोक लगाने की जरूरत। इसके लिये राजनीतिक दलों के बीच एक विचार जरूरी – पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल।

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मॉब-लिंचिंग पर रोक लगाने की जरूरत। इसके लिये राजनीतिक दलों के बीच एक विचार जरूरी – पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल।

आजकल का दौर टेक्नोलॉजी का है। ऐसे में यदि टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल सही तरीके से किया जाये तो यह आम लोगो के लिये व्यापक-लाभदायक है लेकिन इसी टेक्नोलॉजी के माध्यम से गलत लोग इसका गलत इस्तेमाल कर बडे पैमाने पर लोगो को नुकसान पहुंचा सकते हैं। एक तरह से यह आतंकवादियों के लिये एक प्लेटफॉर्म बन चुका है। यह माफियाओँ को ड्रग्स तस्करी, बच्चो का शोषण, मांस व्यापार से धन कमाना और अन्य विनाशकारी व गैरकानूनी गतिविधियों के लिये भी एक आधार बन गया  टेक्नोलॉजी के माध्यम से किसी व्यक्ति को निशाना बनाया जा सकता है। सांप्रदायिक दंगे को अंजाम दिया जा सकता है। इतना ही नहीं राजनीतिक और वैचारिक प्रवृत्तियों को गति प्रदान कर सकता है। अब अफवाहें तेजी से फैलाई जा रही हैं। भीड द्धारा लोगो की पिटाई व हत्या रोजमर्रा की बात हो चुकी है। इंटरनेट पर नकली खबरों का प्रसार एक सामाजिक खतरा बन गया है। 

दूरसंचार और आईटी के मंत्री के रूप में पदभार संभालने के बाद, साल  2010 में मुझे वापस एहसास हुआ कि इससे भारी नुकसान भी है। जैसे-जैसे हमने इंटरनेट के माध्यम से ब्राउज़ किया, हमें ऐसी सामग्री मिली जो जुनून को प्रभावित कर सकती है, सामाजिक विद्वानों को प्रोत्साहित करती है और दंगों का कारण बनती है। मैं 2011 के अंत में, फेसबुक, गूगल , माइक्रोसॉफ्ट, याहू और अन्य के प्रतिनिधियों से मुलाकात की और मेरी चिंताओं को उनके साथ साझा किया। मैंने उन सामग्रियों से निपटने के लिए, यदि संभव हो तो समाधान को समझने के लिए कहा, जो सामाजिक समानता के लिए गंभीर प्रभाव डालते हैं। इसे इंटरनेट की आजादी पर हमला के रूप में व्याख्या किया गया था।

  वे शुरुआती दिन थे। न तो इन प्लेटफार्मों तक पहुंचने वाले और न ही सरकारों ने माध्यम की पूर्ण शक्ति को महसूस किया। मेरा डर सही साबित हुआ है। तब से हमने उन घटनाओं को देखा है जिन्होंने आतंक पैदा किया है और सामाजिक शांति का उल्लंघन किया है।

2012 में वापस, सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर एसएमएस और अफवाहें ने बेंगलुरू से उत्तर-पूर्वी लोगों के पलायन को जन्म दिया। वे आतंक और असुरक्षा से ग्रस्त थे। मुजफ्फरनगर में 2013 के दंगों को फेसबुक पर प्रसारित एक नकली वीडियो के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था। 2012 में म्यांमार में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा ने अहमदाबाद और मुंबई में हिंसा की शुरुआत की। नेट पर पोस्ट की गई एक खराब छवि के कारण अक्टूबर 2014 में वडोदरा सप्ताहांत दंगों की पकड़ में था।

साल 2014 में पुणे में भीड़ हिंसा पर उतारू थे क्योंकि फेसबुक और व्हाटसएप पर शिवाजी और हिंदू देवताओं की छवियों का खराब पर साझा किया गया था। ऐसे ही मामले में सादिक शेख की हत्या कर दी गई थी भीड द्धारा। एक आक्रमक फेसबुक पोस्ट की वजह से पश्चिम बंगाल के बदूरिया में दो समुदायों के बीच संघर्ष छिड गया था साल 2017 में।

 अब हम जानते हैं कि बच्चों की चोरी की अफवाहों को बढ़ावा देने वाले वीडियो के कारण धुले में भीड़ हिंसक हो उठी थी। और लोगो की हत्या कर दी थी। कुछ क्लिपिंग बेंगलुरू, कराची और सीरिया से थे। इसक वजह से दंगे हुए थे। जिन लोगो ने दंगे कराये उन्हें ही समाधान खोजने के लिये कहा जा रहा है। 

 सुप्रीम कोर्ट को विश्वास और उम्मीद है कि सरकार इस बारे में संसद में कानून बनाने के लिये विधेयक लायेगी। न्यूयॉर्क टाइम्स शांत है। मुझे लगता है कि वे महसूस करते हैं, क्योंकि उनके पास पहले हीं होना चाहिए था कि कोई पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है।  पीड़ितों और सामाजिक शांति को संरक्षित करने की आवश्यकता है; अपराधों को रोकने, बदनाम करने, दुर्व्यवहार करने, झुकाव और मारने के लिए ऐसे प्लेटफार्मों का उपयोग करने की आजादी एक अव्यवस्थित अवधारणा है।

समस्या यह है कि इस बारे में सिर्फ एक कानून बनाना इस खतरे का समाधान नहीं है। कानून मे कोई कमी नहीं है। मनोदशा ही प्रदूषित हो और नफरत की संस्कृति को चुपचाप प्रोत्साहित किया जाता है। पिछले चार वर्षो में हमने देखा है कि इस नफरत की संस्कृति का बीजारोपण कैसे किया गया। कैसे फैलाया गया। कैसे मुस्लिम और दलित समुदाय के लोगो के साथ वर्ताव किया गया सार्वजनिक रूप से। 

 हमने जांचकर्ताओं को आरोपी की रक्षा करने और पीड़ितों पर आरोप लगाते भी देखा है। यदि जांच एजेंसियां मॉब-लिचिंग के साथ सहयोग करती हैं, तो अपराधी का मनोबल बढेगा। इस तरह की जटिलता को रोकने में कोई कानून नहीं होगा।   क्योंकि माध्यम की प्रकृति पूर्व-सेंसरशिप की अनुमति नहीं देती है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ऐसे तकनीक विकास करनी चाहिये जो इस तरह के चीजों पर अंकुश लगाता हो। ऐसे तकनीक हों कि फोटो, वीडियो और मैसेज पांच लोगो को ही भेजा जा सकता है। व्हाट्सएप द्वारा मीडिया संदेशों के बगल में त्वरित आगे बटन को हटाने का स्वागत किया जाना चाहिये। 

इसके लिये हमें एक तीन-स्तरीय रणनीति की जरूरत है। सबसे पहले, राजनीतिक दलों को एक आवाज में बात करनी चाहिए और उन लोगों के खिलाफ शून्य सहनशीलता की घोषणा करनी चाहिए जो हिंसा को उत्तेजित करने के लिए ऐसे प्लेटफॉर्म का उपयोग करने और उपयोग करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए, चुनावी लाभ के लिए समाज के ध्रुवीकरण को रोकना चाहिए।

दूसरा, चुनाव आयोग नफरत फैलाने वाली भाषण को चुनावी अपराध बनाने पर विचार कर सकता है। तीसरा, गुमराह छवियों या अफवाहों के घबराहट से नफरत करते समय गुमनामी को ढाल के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को अव्यवस्था के साथ जहर फैलाने वाले स्रोत की पहचान का खुलासा करना चाहिए। कानून को इसके स्रोत की जानकारी और दोषियों को दंडित किया जाना चाहिये।   

उन लोगों को लक्षित करें जो हिंसा को उत्तेजित करने के लिए माध्यम का उपयोग करते हैं और जो लोग अपने हाथों में कानून लेते हैं। घृणित भाषण और अफवाहों के खिलाफ कार्रवाई की जरूरत है। 

 

(लेखक कपिल सिब्बल कांग्रेस लीडर व पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं। साथ ही सुप्रिम कोर्ट मे देश के प्रतिष्ठित एडवोकेट हैं.)