सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ जज रंजन गोगोई ने हाल के एक व्याख्यान में देश के हालात पर एक व्याख्यान दिया है जो वास्तव में आज देश की सही तस्वीर पेश करता है। जस्टिस गोगोई ने अपनी ओर से यह सुझाव भी दिया है कि हालात को सुधारने के लिए जरूरी यह है कि न्यायाधीश चुप्पी तोड़ें और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करें। इतना ही नहीं, पत्रकारों को और न्यायपालिका को स्वतंत्र रहते हुए स्वतंत्र सोच के साथ अगली पंक्ति में आकर अपनी आवाज को बुलंद करना होगा। उन्होंने व्याख्यान में जो कुछ कहा उसका अर्थ भी बिलकुल साफ है। वह यह है कि समाज के विभिन्न वर्गों को जो कुछ करना चाहिए वे नहीं कर पा रहे हैं। संभावनाएं दोनों हैं- एक तो यह कि वे सब-कुछ समझते हैं, करना भी चाहते हैं लेकिन उन्हें करने नहीं दिया जाता। और दूसरी संभावना यह है कि वे खुद ही अपने को इतना कमजोर महसूस कर रहे हैं कि करने के लिए उनके मन में दिलचस्पी बची ही नहीं है। जस्टिस गोगोई के व्याख्यान से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि समाज का प्रबुद्ध वर्ग अपने कर्तव्य पालन से चूकता रहा तो स्थितियां दिन-पर-दिन बदतर होती जाएंगी और फिर ऐसा भी हो सकता है कि स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाए। भारत कैसे मजबूत हुआ और उसकी मजबूती कैसे बढ़ सकती है उस रास्ते को छोड़कर अगर यहां के लोग उन रास्तों पर चलना शुरू करें जिनसे स्थितियां और खराब होंगी तो परिणाम भी सामने है और वह परिणाम कितना भीषण होगा उसकी कल्पना भयावह ही लगती है।
पूरी दुनिया को मालूम है कि भारत के लोगों ने गांधी जी के नेतृत्व में अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी। सत्य, अहिंसा और प्रेम के सिद्धांत को अपनाया और अनेकता में एकता के फार्मूले पर पूरे देश को एकजुट किया। आजादी मिलने के बाद भारत का हर व्यक्ति अपने को भारतीय कहने में गर्व का अनुभव करता था। जनभावना को देखते हुए ही और उसके जरूरतों को समझते हुए ही इस देश ने एक संविधान बनाया। उस संविधान को पूरी बहस के बाद सोच-समझकर स्वीकार किया, अंगीकृत किया तथा आत्मार्पित किया। संविधान की व्यवस्था में यह बात शामिल है कि जरूरत के अनुसार एक खास प्रक्रिया के अंतर्गत उसकी व्यवस्थाओं में संशोधन किया जा सकता है। लेकिन कभी ऐसा नहीं हो सकता कि संविधान को उठाकर ही फेंक दिया जाए और एक नए संविधान का निर्माण किया जाए। यह पूरी तरह अकल्पनीय है। संविधान में पूरी व्यवस्था को चलाने के लिए नियम बनाए और उन नियमों की व्याख्या करने तथा उनकी सुरक्षा करने का अधिकार देश के सर्वोच्च न्यायालय को दिया। मकसद साफ है कि अगर किसी को संविधान की किसी व्यवस्था के बारे में शंका हो तो वह सुप्रीम कोर्ट के पास जाए और वहां जो निर्णय हो उसे पूरे मन से स्वीकार करे। छोटी-बड़ी कोई भी समस्या ऐसी नहीं है जिसका समाधान संविधान के अंतर्गत न किया जा सके और सुप्रीम कोर्ट उस पर कोई निर्णय न ले सके। लेकिन जब जिम्मेदारी वाली जगहों पर बैठे लोग, कोई समूह, कोई पार्टी या खुद सरकार को ही संविधान की व्यवस्थाओं में खोट नजर आने लगे और वह पूरी तरह हर चीज को उलट-पुलट करने की कोशिश करे तो देश के लिए रास्ता कठिन हो जाएगा। मसलन, संविधान ने हर काम का जिम्मा किसी न किसी को सौंपा है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपना काम पूरा करे। काम न करने वालों को रास्ते पर लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट है। देश की प्रशासनिक सेवाओं को चलाने के लिए उपयुक्त पात्रों का चयन संघ लोक सेवा आयोग करता है क्योंकि संविधान में नागरिकों के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव स्वीकार नहीं किया जाता इसलिए सफल व्यक्तियों का चयन सिर्फ प्रतिभा के आधार पर किया जाता है। अगर देश की सरकार संविधान की मूल भावनाओं से सहमत होने में सहजता अनुभव न करे और वह यहां तक प्रयास करे कि जिम्मेदारी वाले पदों पर ऐसे लोगों का चयन किया जाए जो उसकी विचारधारा से सहमत हों तो संविधान की मर्यादा के सामने संकट खड़ा हो जाएगा। अब सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि वह कौन सी मूल भावना है जिसको संविधान देश की मूल भावना मानता है। साफ शब्दों में हम कहें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि देश की राजनीतिक पार्टियों को एक बात पर सहमत होना ही पड़ेगा कि अपनी विचारधारा के बावजूद शासन में आने पर हर पार्टी संविधान से ही प्रेरणा ले। इसके विपरीत अगर अपनी विचारधारा को कोई पार्टी संविधान पर थोपने की कोशिश करती है तो यह सारी व्यवस्था चरमरा जाएगी।
केंद्र की वर्तमान सरकार ने 2014 में जब कार्यभार संभाला तो आते ही यह कहना शुरू किया कि आजादी के बाद 70 वर्षों में इस देश में कुछ नहीं हुआ। हालांकि यह बात पूरी तरह गलत ही नहीं, गलत नीयत से कही बात है लकिन देश की जनता ने ऐसी बातों को इसलिए स्वीकार किया कि उसकी समझ में यह था कि राजनीतिक पार्टियों के मतभेद अपने-अपने तरीके से सामने आते हैं। अफसोस की बात यह है कि वर्तमान सरकार ने यह समझने की कोशिश नहीं की कि संविधान और लोकतंत्र के प्रति इस देश की जनता की निष्ठा प्रबल है। राजनीतिक दलों को राजनीतिक लाभ के लिए कुछ बोलने या कुछ करने की छूट लोकतंत्र में मिलती है। लेकिन किसी को भी ऐसी छूट नहीं दी जा सकती जिससे आजादी की बुनियाद ही हिल जाए। वर्तमान स्थिति दिन-पर-दिन इसलिए खराब होती गई है क्योंकि संविधान की व्यवस्थाओं की भी अवहेलना की जा रही है। कई बार तो ऐसा लगता है कि कार्यपालिका न्यायपालिका पर हावी होना चाहती है। आज लोगों को इस बात की भी पीड़ा है कि लोकतंत्र में पत्रकारिता को जैसा निष्पक्ष होना चाहिए वैसी भूमिका वह नहीं निभा रही है। यहां तक कि इस देश में जब गुलामी के दिन थे तो आजादी को जन्मसिद्ध अधिकार बताने की पहल एक पत्रकार (बाल गंगाधर तिलक) ने ही की थी। आज लगता है पत्रकारिता भी अपने उचित मार्ग से विचलित हो चली है। न्यायाधीश गोगोई की पीड़ा देश के एक ऐसे प्रबुद्ध व्यक्ति की पीड़ा है जिसको समझने की जरूरत है। आज देश की अधिकांश विपक्षी दल विचारधारा संबंधी कुछ मतभेदों को भुलाकर भी एक साथ मिलकर काम करने को तैयार हो रहे हैं तो इसकी वजह यही है कि उन्हें लगता है कि ऐसे हालात पैदा कर दिए गए हैं जिनमें देश के लोकतंत्र, संविधान और बुनियादी ढांचे के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। सबको पता है कि देश का बुनियादी ढांचा अनेकता में एकता के सिद्धांत पर टिका हुआ है और यदि वह बुनियाद ही हिल गई तो फिर न तो देश बचेगा और न ही राजनीतिक दल बचेंगे।
जस्टिस गोगोई देश के अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं। अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों ने इस खतरे की तरफ देश का ध्यान आकर्षित किया है। जो लोग यह कह रहे थे कि पिछले 70 सालों में कुछ नहीं हुआ उनके मन की असल व्यथा यह है कि पिछले 70 सालों में यहां कि व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करने का उनका सारा प्रयास विफल हुआ और वे नहीं चाहते कि इस बार का उनका प्रयास विफल हो जाए। इसलिए वक्त की मांग है कि देश की जनता खुद तमाम स्थितियों पर गौर करे और खुद निर्णय ले कि पिछले 70 साल में जो हुआ वह ठीक था या हाल के चार वर्षों में जो कुछ हुआ है वह ठीक है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो जस्टिस गोगोई जैसे लोगों की पीड़ा व्यर्थ ही जाएगी और अर्थ यही निकलेगा कि जैसे सब लोग अपनी बात कहते हैं उन्होंने भी अपनी बात कह दी। निर्णय सदा से जनता करती आई है और वही फिर निर्णय करेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार है। इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी मत हैं।)