कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगे : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद ।

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कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण पर प्रतिबंध लगे : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद ।

(नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक उपेन्द्र प्रसाद)। कर्नाटक विधानसभा चुनावों ने एक बार फिर चुनाव पूर्ण जनमत सर्वेक्षणों को गलत साबित कर दिया है। आमतौर पर ये गलत ही साबित होते हैं। इक्का दुक्का कभी कभी यह सही साबित हो जाएं, तो यह अलग बात है, अन्यथा ये गलत होने के लिए अभिशप्त हैं। सवाल यह उठता है कि ये गलत क्यों होते हैं? एक कारण तो सर्वेक्षण करने के तरीके हो सकते हैं। लेकिन क्या वाकई सर्वेक्षण के तरीके गलत होते हैं या जानबूझकर सर्वेक्षण के नतीजों को गलत किया जाता है, ताकि जनमत हो प्रभावित किया जा सके।

दरअसल ये सर्वे समर्थ राजनैतिक पार्टियों के लिए चुनाव अभियान का एक तरीका हो गया है। वे इन सर्वेक्षणों को प्रायोजित करते हैं। उनपर करोड़ो खर्च किया जाता है और जनमत के नाम पर जनता के सामने टीवी चैनलों के द्वारा परोस दिया जाता है। यह जनमत का सही रूप नहीं होता, बल्कि इसके पीछे जनमत को प्रभावित करने का लक्ष्य होता है और जनमत कुछ हद तक प्रभावित भी हो जाते हैं।

लेकिन समय के साथ साथ जनता जागरूक होती जा रही है और अ बवह भी इन सर्वेक्षणों को संदेह की नजरों से देखने लगी है। इसके कारण यह अब पहले की तरह प्रभावी नहीं रहे, फिर भी कुछ न कुछ प्रभाव तो डालते ही हैं।

चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को टीवी चैनलों, अखबारों व अन्य माध्यमों द्वारा जनता के सामने लाया जाता है। लेकिन इससे जुड़ी सच्चाई यह है कि मीडिया संस्थानों के पत्रकारों को इन सर्वेक्षणों से कोई सरोकार नहीं होता। सच तो यह है कि प्रकाशित यह प्रसारित होने के कुछ पहले तक उस मीडिया संस्थान में काम कर रहे उच्चपदस्थ पत्रकारों को भी नहीं पता रहता कि इन सर्वेक्षणों के क्या नतीजे होते हैं। सर्वेक्षण का पूरा जिम्मा मार्केट रिसर्च कंपनियों को दिया जाता है, जिनका पत्रकारिता से कुछ भी लेना देना नहीं हैं।

टीवी चैनलों की बढ़ती संख्या के साथ साथ अनेक ऐसी कंपनियां भी अस्तित्व में आने लगी हैं, जो सर्वेक्षण करवाती हैं। यदि किसी कंपनी का सर्वे कभी सही साबित हो गया तो उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाती है और अगले चुनाव में वह उस विश्वसनीयता की कीमत कहीं से वसूल लेती है और फिर अगले चुनावों में उसके निष्कर्ष गलत साबित होने लगते हैं।

यदि हम चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षणों का पुरान रिकार्ड देखें, तो एक से बढ़कर एक दिलचस्प बातें सामने आएंगी। एक बार तो एक न्यूज चैनल ने ही इस तरह के सर्वेक्षणों पर एक स्टिंग आपरेशन किया था। न्यूज एक्सप्रेस नाम का वह चैनल अब बंद हो गया है, लेकिन उसने स्टिंग करके यह साबित किया था कि सर्वे करने वाली कंपनियों के नियंत्रक कैसे मोलभाव करते हैं, ताकि पैसे देने वालों के हितों के अनुसार वे नतीजे तैयार कर सकें।

सवाल तो यह भी उठता रहा है कि क्या सर्वेक्षण किए भी जाते हैं या दफ्तर में ही बैठकर सबकुछ तय कर दिया जाता है। इस बात की संभावना भी व्यक्त की जाती है कि कुछ कंपनियां एक कमरे में बैठकर ही आंकड़े तैयार करती हैं और उसका विश्लेषण प्रस्तुत कर दिया जाता है। सच तो यह है कि अनेक मामले में निष्कर्ष पहले निकाले जाते हैं और सारे आंकड़े बाद में तैयार किए जाते हैं। इस तरह प्रायोजित करने वाले पक्ष के अनुसार सर्वेक्षण के नतीजों को प्रसारित कर दिया जाता है।

इन सर्वे कंपनियों के कारण पत्रकारों और पत्रकारिता का भारी नुकसान हो रहा है। पत्रकारों के अपने कौशल उन कपंनियों के सामने बौने दिखने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि जमीन से जुड़कर पत्रकारिता करने और राजनीति की सही समझ रखने वाला पत्रकार इस कंपनियों से बेहतर निष्कर्ष निकाल सकता है। उसके पास राजनीति की नब्ज पकड़ने की समझ बेहतर होती है। लेकिन जब चुनाव सर्वेक्षण करने वाली ये कंपनियां सुर में सुर मिलाकर गलत आकलन पेश करती है, तो पत्रकारों की पत्रकारिता के कौशल पर ही सवाल उठने लगते हैं और कई बार तो पत्रकारों को भी लगने लगता है कि कहीं वही तो गलत नहीं हैं।

इस तरह ये चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण स्वस्थ पत्रकारिता के रास्ते का भी एक रोड़ा है। इसके कारण पत्रकार समुदाय की बदनामी होती है, जबकि इनसे पत्रकारों को सिर्फ इतना ही संबंध है कि उनमें से कुछ इन सर्वे के निष्कर्षो पर टिका टिप्पणी करते हैं। लेकिन लोग समझते हैं कि यह पत्रकारों के आकलन हैं।

कर्नाटक चुनाव में एक नया ट्रेंड देखने को मिला है। वह एक्जिट पोल से संबंधित है। एक अंग्रेजी न्यूज चैनल ने एक साथ दो- दो एक्जिट पोल दिखाए। एक एक्जिट पोल में भारतीय जनता पार्टी को 120 सीटें पाने की भविष्यवाणी कर उसकी सरकार बनवा दी, तो दूसरे सर्वे में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी कर दी, जिसमें कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बता दिया गया। ऐसा कर न्यूज चैनल अपनी विश्वसनीयता का ढिंढोरा पीटने की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था।

दोनों में से किसी एक के सच होने की स्थिति में वह बार बार दावा करता कि उसने तो वैसा ही कहा था। लेकिन उस चैनल के दुर्भाग्य से उसके दोनों एक्जिट पोल के निष्कर्ष गलत साबित हो चुके हैं। उसका पहला एक्जिट पोल गलत साबित हुआ है, क्योंकि भाजपा को 120 सीटें नहीं मिल पाई हैं। सच है कि उसके आसपास भी वह नहीं पहुंच पाई है। उसका दूसरा एक्जिट पोल भी गलत हो गया है, क्योंकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं उभर पाई है।

 

अब खतरा है कि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में भी एक ही दिन दो कंपनियों के निष्कर्ष दिखाए जा सकते हैं। वैसे भी एक ही चैनल एक के बाद एक सर्वे दिखाता रहता है, जिनमें उनके आंकड़े बदलते रहते हैं। आने वाले दिनों में यह संभव है कि एक ही दिन एक से ज्यादा निष्कर्ष निकालने वाले सर्वे दिखा दिए जाएं, जो अलग अलग पार्टियों द्वारा प्रायोजित हों।

यह सच है कि इस तरह का सर्वे दिखाने से लोगों की नजर में उन सभी सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता समाप्त होती जाएगी, लेकिन सवाल उठता है कि जनमत सर्वेक्षण के नाम पर इस तरह का फ्रॅाड क्यों करने दिया जाय। सरकार को चाहिए कि कानून बनाकर इस तरह के नापाक धंधों को बंद करवा दे। (उपेन्द्र प्रसाद  - लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीति व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्धारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है। और ये उनके निजी विचार हैं।)