न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ के पदन्नोति को रोकने का केंद्र सरकार का तर्क आधारहीन –कांग्रेस लीडर व प्रसिद्ध एडवोकेट कपिल सिब्बल।

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न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ के पदन्नोति को रोकने का केंद्र सरकार का तर्क आधारहीन –कांग्रेस लीडर व प्रसिद्ध एडवोकेट कपिल सिब्बल।

न्यायमूर्ति के.एम.जोसेफ को उत्तराखंड के मुख्य न्यायाधीश से सुप्रीम कोर्ट का जस्टिस बनाने के कॉलेजियम द्धारा सिफारिश 10 जनवरी 2018) किया गया था। इस पर सरकार का विरोध और पदोन्नति पर रोक लगाना दोषपूर्ण है। 

अप्रैल साल 2016 में जब केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लागू किया था तब न्यायूमर्ति जोसेफ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अब उन्हें हीं सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाया गया। क्या उनका निर्णय उनके उन्नति के रास्ते में खड़ा हो जायेगा? एक ऐसी स्थिति बना दी गई है जहां न्यायपालिका की आजादी खतरे में है। हमें कॉलेजियम की प्रतिक्रिया का इंतजार करना होगा। मुझे उम्मीद है कि इसके सदस्य एक साथ खड़े होंगे और एक आवाज में बात करेंगे। न्यायिक नियुक्तियों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अपनी सर्वोच्चता को दोबारा शुरू कर सकता है यही एकमात्र तरीका है।

न्यायमूर्ति जोसेफ का बाईपास सर्जरी हो चुका है। उन्होंने स्वास्थ के आधार पर अपना ट्रांसफर आंध्र प्रदेश करने का आग्रह किया। मई 2016 में कॉलेजियम ने इस पर हरी झंडी भी दे दी। लेकिन अज्ञात कारणों से इस मामले को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पास नहीं भेजा गया। आम तौर पर इस तरह के मामले में दस दिनों के अंदर मंजूरी दे दी जाती है। केंद्र सरकार के दृष्टिकोण से साफ लग रहा था कि उन्हें टारगेट किया जा रहा है। कोलेजियम की सिफारिश को केंद्र द्धारा न मानने के पीछे साफ दिखता है अप्रैल 2016 के फैसले।  

      

वरिष्ठता का मुद्दा : 

आईये, न्यायमूर्ति जोसेफ की पदोन्नति की सिफारिश को खारिज करने के लिए केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के 26 अप्रैल, 2018 के पत्र में दिए गए कारणों का विश्लेषण करें। पहला यह है कि अखिल भारतीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की वरिष्ठता सूची में, न्यायमूर्ति जोसेफ को 42वें नंबर पर रखा गया है और कहा गया है कि सूची में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 11 मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठ हैं।

 

यह तर्क त्रुटिपूर्ण है। पहला यह है कि न्यायमूर्ति जोसेफ को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था उनके गुणों के कारण। दूसरा, हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के बीच वरिष्ठता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय की पदोन्नति के रूप में नियुक्ति के लिए कभी भी एकमात्र बेंचमार्क नहीं रहा। 2014 के बाद से,  सरकार ने वरिष्ठता को पदोन्नती के लिए एकमात्र आधार के रूप में कभी नहीं माना है। जब न्यायाधीशों दीपक गुप्ता और नविन सिन्हा को फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया था, तो भारत में  उच्च न्यायालय के 40 न्यायाधीश उनसे वरिष्ठ थे। इसी प्रकार, जस्टिस एस अब्दुल नाज़ीर और मोहन एम के मामले में हुआ। फरवरी 2017 में इनसे उच्च न्यायालय के 20 न्यायाधीश वरिष्ठ थे। जब न्यायमूर्ति एस.के कौल भी पदोन्नति दी गई तो उस समय भी उनसे उच्च न्यायलय के 14 न्यायाधीश वरिष्ठ थे। 

 

क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व : 

कानून मंत्री द्वारा एक और तर्क दिया गया कि वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट में छोटे उच्च न्यायालयों सहित कई उच्च न्यायालयों का प्रतिनिधित्व नहीं है। यह सच है कि कुछ राज्यों के उच्च न्यायालयों का प्रतिनिधित्व नहीं है। यह वर्तमान शासन के साथ-साथ अतीत में भी हुआ है। जस्टिस के.जी बालकृष्णन, सी जोसेफ और केएसपी राधाकृष्णन ये सभी केरल हाईकोर्ट से थे। कानून मंत्री ने अपेक्षाकृत छोटे उच्च न्यायालय को बुलाए जाने के बावजूद राधाकृष्णन केरल उच्च न्यायालय से थे। यह एक समय था जब केरल उच्च न्यायालय में ताकत 40 न्यायाधीशों से कम थी। जस्टिस के एस पारिपूर्णम और के.टी थॉमस को केरल उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में भी ले जाया गया था जब इसकी ताकत सिर्फ 21 थी। इसलिए, छोटे से केरल के हाईकोर्ट में गणवत्ता के कारण कई न्यायाधीशों की पदोन्नति की गई।   

 

दिल्ली उच्च न्यायालय में जजों की संख्या 60 है इनमें तीन टॉप पर हैं। कानून मंत्री का मानना है कि न्यायमूर्ति जोसेफ को पदोन्नति देने से केरल उच्च न्यायालय से दो न्यायधीश हो जायेंगे जो कि वह पर्याप्त क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व की अवधारणा के साथ असंगत हैं – यह बातें स्पष्ट रूप से आधारहीन है।   

 

कानून मंत्री को यह खुलासा करना चाहिए था कि फरवरी 2017 में, कर्नाटक उच्च न्यायालय से जस्टिस शांतनगौदर और जस्टिस अब्दुल नाज़ीर को एक ही दिन पदोन्नति दी गई थी। यदि दो न्यायाधीशों को कर्नाटक से पदोन्नति दिया जा सकता है तो केरल से क्यों नहीं। जबकि जस्टिस जोसेफ इसी साल रियाटर होने जा रहे हैं। केरल से दो जजों का न्यायाधीश न होने की बात सिर्फ न्यायमूर्ति जोसेफ के पदोन्नति का विरोध करना भर है। 

   

सुप्रीम कोर्ट में न्यायधीशों के क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और वर्तमान प्रतिनिधित्व को ध्यान में रख देखें तो इलाहाबाद हाईकोर्ट में जजो की क्षमता 160 है तो वहां से दो से अधीक न्यायधीश होने चाहिये। यही तर्क पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के साथ-साथ बॉम्बे हाईकोर्ट पर भी लागू होता है। जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सुप्रीम कोर्ट में दो न्यायाधीश हैं, बॉम्बे हाईकोर्ट से तीन हैं। इसलिए, अपर्याप्त क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के आधार पर न्यायमूर्ति जोसेफ की पदोन्नति का विरोध उचित नहीं।

 

तीसरा कारण यह है कि सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति (अनुसूचित जाति) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है। सबसे पहले, सुप्रीम कोर्ट की कुल स्वीकृत क्षमता 31 न्यायाधीश की हैं। फिलहाल, 25 हैं। इस साल 6 न्यायाधीश सेवानिवृत्त होंगे। बहरहाल कुल 12 रिक्तियां होंगी। सरकार अपने तर्क के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को प्रतिनिधित्व दे सकती है। लेकिन इस तर्क के साथ न्यायमूर्ति जोसेफ के पदोन्नति को नहीं रोका जा सकता है। ऐसे तर्क के मार्फत सरकार का मूल मकसद असली मुद्दे को दबा देना है।  

 

जस्टिस जोसेफ के पदोन्नति को रोकने के लिये जो भी तर्क दिये जा रहे हैं चाहे वरिष्ठता का सवाल हो या क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व का या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व का वह उचित नही है। मैं केवल 10 जनवरी, 2018 को कॉलेजियम द्वारा की गई सिफारिश को दोहराना चाहता हूं: "कोलेजीयम मानता है कि वर्तमान में श्री जस्टिस के.एम जोसेफ, जो केरल उच्च न्यायालय से हैं और वर्तमान में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में काम कर रहे हैं, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किए जाने के लिए अन्य मुख्य न्यायाधीशों और वरिष्ठ न्यायालयों के न्यायाधीशों के मुकाबले सभी मामलों में अधिक योग्य और उपयुक्त हैं।

 

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि न्यायमूर्ति जोसेफ का विरोध उचित नहीं। कार्यपालिक नियुक्ति प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से हस्तक्षेप कर रहा है। अगर सरकार का रुख वैध है, तो न्यायपालिका की आजादी पर इस तरह के घुसपैठ नियमित हो जायेगा। हम चाहते हैं कि हमारे न्यायाधीश अतिरिक्त संवैधानिक दबावों के प्रति प्रतिरोधी हों। यह प्रतिरक्षा हमारे नागरिकों की रक्षा करने का एकमात्र तरीका है। एक न्यायपालिका आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाये तो लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा हो जायेगा। 

 लेखक - कपिल सिब्बल संसद सदस्य (राज्य सभा), पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस लीडर)। मूल लेख अंग्रेजी में है जो द-हिन्दू में प्रकाशित हुआ है।