यूक्रेन पर रूस के हमले का तात्कालिक कारण नाटो से जुड़ा हुआ है। यूक्रेन धीरे धीरे नाटो के प्रभाव में जा रहा था और उसके इस संस्था के सदस्य बनने की प्रबल संभावना थी। न तो यूक्रेन ने कभी इस बात का खंडन किया कि नाटो का सदस्य बनने जा रहा है और न ही नाटो ने कभी कहा कि यूक्रेन उसका सदस्य नहीं बनने वाला। रूस बस यही चाहता था कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बने। उसने ऐसी प्रतिबद्धता व्यक्त करने से मना कर दिया। उधर नाटो ने भी कहने से मना कर दिया कि वह यूक्रेन का अपना सदस्य नहीं बनाएगा।
यूक्रेन नाटो का सदस्य बने या न बने यह उसका अपना फैसला होगा और एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में यह फैसला करने के लिए किसी की इच्छा या अनिच्छा पर निर्भर नहीं है। इसलिए आप कह सकते हैं कि बताना या न बताना उसका संप्रभु अधिकार था और रूस को उसकी संप्रभुता का सम्मान करते हुए यह उस पर छोड़ देना चाहिए था कि वह कौन सा संगठन ज्वाइन करना चाहता है और कौन सा नहीं। लेकिन यह तो सैद्धांतिक बात हुई। व्यवहार में कोई व्यक्ति या कोई देश सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र नहीं है। कुछ निर्णय लेने के पहले अनेक बार दूसरों का भी ध्यान रखना पड़ता है।
और नाटो में शामिल होने के मामले पर यूक्रेन रूस का ध्यान रखने को तैयार नहीं था। वह रूस का अब हिस्सा नहीं रहा, लेकिन उसकी समस्या यह है कि वह रूस के इतिहास का हिस्सा रहा है। यूक्रेन को रूस में छोटा रूस भी कहा जाता है। जार के समय में यूक्रेन पर रूस का ही कब्जा था। रूस की अक्टूबर, 1917 की क्रांति के बाद यूक्रेन कुछ समय के लिए आजाद भी हुआ, लेकिन बहुत जल्द सोवियत संघ का हिस्सा हो गया। कहने को तो वह एक स्वायत्त गणतंत्र था, ठीक उसी तरह जिस तरह रूस एक स्वायत्त गणतंत्र था, लेकिन व्यवहार में उसकी सत्ता की डोर रूस के हाथ में ही थी, जो सोवियत संघ का कत्र्ताधत्र्ता था।
सोवियत संघ कम्युनिस्ट क्रांति के विस्तार से गठित हुआ था और इस क्रांति का केन्द्र रूस था। उधर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कम्युनिस्ट विरोधी देशों ने अमेरिका के नेतृत्व में एक सैन्य संधि का गठन किया, जिसका नाम नाॅर्थ अटलांटिक ट्रीटी आॅर्गेनाइजेशन यानी नाटो था। सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों को मिलाकर एक वारसा पैक्ट नाम की सैन्य संधि स्थापित की। दूसरे विश्व युद्ध के बाद नाटो और वारसा पैक्ट के बीच शीत युद्ध चलता रहा। एक का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, तो दूसरे का नेतृत्व सोवियत संघ के हाथ में था। यह शीतयुद्ध बहुत लंबा नहीं चला, क्योंकि सोवियत संघ का 1990 के आसपास विघटन हो गया। उस समय मिखाइल गोर्वाच्योव सोवियत संघ के राष्ट्रपति और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी थे। उनकी ग्लोसनास्त की नीति के कारण सोवियत संघ का विघटन हो गया।
सोवियत संघ के विघटन का अमेरिका और उसके मित्र देशों ने भारी स्वागत किया। उन्होंने जश्न मनाया। इसे समाजवादी -साम्यवादी विचारधारा की हार और पूंजीवादी विचारधारा की जीत बताई गई। आप इसे जीत कह सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही शीतयुद्ध की समाप्ति भी हो गई थी। वारसा पैक्ट समाप्त हो गया था। पोलैंड खुद इस पैक्ट से बाहर हो गया था, जिसकी राजधानी वारसा के नाम पर यह पैक्ट था। उसने बाजार की अर्थव्यवस्था को अपना लिया था। साम्यवादी पूर्वी जर्मनी पूंजीवादी पश्चिमी के साथ मिलकर एक हो गया था और उसके पहले बर्लिन की दिवार गिर गई थी।
सोवियत संघ से जुड़े गणतंत्र भी एक एक कर स्वतंत्र हो रहे थे और सबसे बड़ा गणतंत्र रूस उनका विरोध नहीं कर रहा था। यूक्रेन सोवियत संघ में रूस के बाद दूसरा सबसे बड़ा गणतंत्र था। आज भी वह क्षेत्रफल के रूप में रूस के बाद यूरोप का सबसे बड़ा देश है। चूंकि सभी गणतंत्र रूस की सहमति से ही अलग हुए थे, इसलिए अलग होने के बावजूद उनसे रूस का संबंध ठीकठाक ही रहा था। यूक्रेन से भी उसके संबंध खराब नहीं रहे थे।
पर बाद में यूक्रेन रूस की छाया से मुक्त होने लगा। रूस के खिलाफ उनके लोगों में उसी तरह का आक्रोश था, जैसा किसी पूर्व साम्राज्यवादी देश के खिलाफ उसके पूर्व उपनिवेश का होता है। जाहिर है, यूक्रेन के लोग अपना अलग इतिहास लिखने लगे। जार के समय तो वे रूस के गुलाम थे ही, सोवियत युग को भी उन्होंने अपनी गुलामी का युग ही माना, जबकि सोवियत संघ में उसके विलय को उसकी मुक्ति मानी गई थी। मुक्ति कहें या गुलामी, यूक्रेन रूसी भाषा और रूसी संस्कृति से भी मुक्ति की राह पर चल पड़ा, जबकि यूक्रेन में रूसी भाषियों की संख्या आधी से भी ज्यादा थी, क्योंकि सोवियत काल में वही लिंक भाषा का काम कर रही थी। सिर्फ भाषा तक मामला सीमित नहीं था, यूक्रेन वासियों में करीब 40 फीसदी रूसी मूल के ही लोग थे। इसलिए रूसी भाषा और रूसी संस्कृति के खिलाफ माहौल बनाने का स्थानीय स्तर पर भी विरोध हुआ। इस तरह पूरा यूक्रन रूस विरोधी और रूस समर्थक खेमे में बंट गया।
रूस समर्थक एक नेता 2004-5 में वहां का राष्ट्रपति बना, लेकिन उसे आंदोलन करके हटा दिया गया। फिर वही व्यक्ति 2010 में भी वहां का राष्ट्रपति बना। चार साल के बाद उसे भी आंदोलन करके हटा दिया गया। उसी साल रूस ने यूक्रेन में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया और रूसी मूल के लोगों के बहुमत वाले क्रीमिया को उससे अलग कर डाला। क्रीमिया रूस का हिस्सा हो गया। यूक्रेन के दो इलाके भी उसके हाथ से निकल गए।
रूस के खिलाफ अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए यूक्रेन नाटो के खेमे में जा रहा था। उसका नाटो का सदस्य बनने का मतलब था कि वहा अमेरिका सहित अन्य नाटो देश अपने सैन्य ठिकाने बना सकते थे और उससे रूस की सुरक्षा खतरे में पड़ जाती। इसलिए उस खतरे से बचने के लिए रूस ने यूक्रेन पर ही हमला कर डाला है। यदि सोवियत संघ और वारसा पैक्ट के विघटन के साथ नाटो को भी भंग कर दिया जाता, तो इस तरह की समस्या पैदा नहीं होती।
नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, वरिष्ठ पत्रकार, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। वॉइस ऑफ ओबीसी के संपादक, लेखक के निजी विचार हैं।)