झारखंड का भाषा विवाद, नहीं संभाला, तो हो सकते हैं हिंसक टकराव : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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 झारखंड का भाषा विवाद, नहीं संभाला, तो हो सकते हैं हिंसक टकराव : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

झारखंड में चल रहा भाषा विवाद बद से बदतर रूप लेता दिखाई पड़ रहा है। वहां के आदिवासी और दक्षिणी झारखंड में रहने वाले कुछ गैर आदिवासी भी एक ऐसी समस्या पैदा कर रहे हैं, जो निहायत ही हास्यास्पद है। यह हास्यास्पद तो है, लेकिन इस समस्या ने यदि विकराल रूप धारण किया, तो यह एक बड़ी समस्या बन जाएगी और यह सिर्फ झारखंड तक सीमित नहीं  रहेगी।

भाषा विवाद भोजपुरी, मगधी, अंगिका औ उर्दू को लेकर है। उर्दू तो बिहार के जमाने से ही दूसरी राजकीय भाषा बनी हुई है। झारखंड ने इसे दूसरी भाषा के रूप में विरासत में पाया है। लेकिन पिछले साल मगही भोजपुरी और अंगिका को स्थानीय भाषाओं में शामिल करके उन्हें सरकारी नौकरियों से जोड़ दिया गया। उसके पहले झारखंड की अन्य 5 भाषाओं को भी उसी तरह स्थानीय भाषा के रूप में मान्यता देकर सरकारी नौकरियों से जोड़ दिया गया था। उसकी प्रतिक्रिया में पलामू, गढ़वा और बिहार की सीमा से सटे कुछ अन्य जिलों के लोगों ने अपनी अपनी भाषाओं को भी स्थानीय भाषाओं के रूप में मान्यता देने की मांग कर दी। चूंकि बिहार की सीमा से लगे जिलों में लोगों का बहुमत इन्हीं तीनों बोलियों को बोलता है, तो उन्हें भी स्थानीय भाषा के रूप में मान्यता दे दी गई और जिन जिलों में वे बोलियां बोली जाती हैं, उन जिलों की सरकारी नौकरियों के लिए उन बोलियों को लिंक कर दिया गया। और विवाद यहीं से शुरू हुआ।

उधर भारतीय जनता पार्टी उर्दू को जिला स्तरीय सरकारी नौकरियों से लिंक करने का विरोध कर रही है। दरअसल, हेमंत सरकार ने तृतीय और चतुर्थ श्रेणियों के कर्मचारियों की नियुक्ति में जिले को ईकाई बना दिया है। नियुक्तियां तो राज्य के कर्मचारी चयन आयोग को ही करनी है, लेकिन यह जिला वार होगी। इसके पीछे उद्देश्य यह है कि नियुक्ति की प्रक्रिया में क्षेत्रीय विषमता न आ जाए। ऐसा न हो कि सारी सीटों पर कुछ ही जिलों के लोगों का कब्जा हो जाय और अधिकांश जिलों के अभ्यर्थियों के हाथ कुछ नहीं आया।

बहरहाल, यह सोच सही है, लेकिन इसके साथ भाषा को लिंक कर दिए जाने से समस्या पैदा हो गई। कुछ झारखंडी भाषाओं को प्रश्रय देने के लिए ऐसा किया गया था, लेकिन जब दक्षिण झारखंड के लोगों को यह सुविधा दी जा रही हो, तो फिर उत्तरी झारखंड के लोग इससे वंचित क्यों रहते? उन्होंने दबाव बनाया और हेमंत सरकार ने उनकी मांग को स्वीकार कर लिया। भारतीय जनता पार्टी ने उर्दू की बोबी खड़ी कर दी। कहने लगी कि यदि उर्दू भाषी लोगों को सरकार सुविधा दे रही है, तो फिर भोजपुरी, मगही और अंगिका भाषी लोगों ने क्या अपराध किया है? प्रतिस्पर्धी राजनीति के दबाव में भी हेमंत सोरेन को उपरोक्त तीनों बोलियों को स्थानीय भाषा के रूप में मान्यता देनी पड़ी।

विरोध धनबाद से शुरू हुआ। वहां बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आए लोगों की बहुत भारी संख्या है। धनबाद जिला बिहार से लगा हुआ नहीं है और वहां के स्थानीय लोगों की बोली भोजपुरी वगैरह नहीं है, लेकिन दूर दराज से आकर बसे मगही और भोजपुरी बोलने वालों की संख्या वहां अच्छी खासी है, जिसके कारण वहां के स्थानीय लोगों को लगा कि उनको सरकारी नौकरियां शायद नहीं मिल पाएं। इसलिए वहां के लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया। और उसके बाद यह विरोध राज्य व्यापी रूप लेता दिखाई दे रहा है।

इन बोलियों को स्थानीय भाषा का दर्जा देने के निर्णय को वापस लेने की मांग की जा रही है। हाशिए पर चले गए राजनीतिज्ञों को फिर से सक्रिय होकर अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिल गया है और प्र्रदेश की तीनों प्रमुख पार्टियों में इस मसले पर दरार पैदा हो गई है। जो बिहार से सटे जिलों के नेता हैं, वे भोजपुरी, मगही और अंगिका का समर्थन कर रहे हैं, जबकि आदिवासी आर आदिवासी क्षेत्रों के गैर आदिवासी नेता भी इन तीनों बोलियों को सरकारी मान्यता देने के खिलाफ हो गए हैं। शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतों ने तो इन्हें बिहारियों की बोली बताकर इसका विरोध किया और इन्हें बोलने वालों को बिहारी घुसपैठिया तक कह डाला। उसके बाद उनका पुतला जलाया जाने लगा है और उनसे इस्तीफे की मांग की जा रही है। बिहारी बोली विरोधियों ने भी हिंसक वारदातों को अंजाम दे डाला है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेता पूर्व सांसद रवींन्द्र राय पर हमला कर दिया और उनके वाहन को क्षतिग्रस्त कर दिया। उधर समाजवादी नेता गौतम सागर राणा ने भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका बोलने वालों का एक मंच तैयार कर दिया है और मंच इन बोलियों की मान्यता समाप्त करने पर भयानक स्थिति पैदा करने की चेतावनी दे रहा है।

कहने की जरूरत नहीं कि इन कथित बिहारी बोलियों के खिलाफ चल रहा आंदोलन पूरी तरह से गलत अवधारणा पर आधारित है। रांची, जमशेदपुर, धनबाद और बोकारो में रह रहे बिहारी बोली बोलने वाले भले ही बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से वहां आए हों, लेकिन बिहार की सीमा से सटे गढ़वा, पलामू, चतरा, कोडरमा, गिरीडीह, देवघर, साहबगंज और हजारीबाग के मगही, अंगिका और भोजपुरी भाषी वहीं के स्थानीय निवासी हैं और सैंकड़ों सालों से वहीं रह रहे हैं। उन्हें बाहरी कहना और उनकी बोलियों को बाहरी कहना झारखंडी नेताओं के अज्ञान का नतीजा है। यदि इन तीनों बोलियों की मान्यता सोरेन सरकार ने समाप्त की, तो यह उपरोक्त जिलों में रहने वालों के साथ अन्याय होगा और वे इसके खिलाफ तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं। मामला और यदि गर्म हुआ और हिंसक टकराव हुए, तो बिहारी सीमा पर रहने वाले झारखंडी अलग प्रदेश या फिर बिहार में फिर शामिल होने की मांग भी कर सकते हैं।

दरअसल झारखंड का गठन भाषा के कारण नहीं हुआ था। पहले तो आदिवासियों के लिए अलग राज्य बनाने की मांग जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में हुई थी। उन्हें सफलता नहीं मिली। फिर बिनोद बिहारी महतो और शीबू सोरेन के नेतृत्व में बिहार के दक्षिणी भूभाग को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन हुआ और अलग राज्य बना। अब भाषा का मामला खड़ाकर झारखंड के नेताओं ने एक नया सिरदर्द खड़ा कर दिया है, जो प्रदेश की एकता को ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है।