राष्ट्रवादी मोदीनॉमिक्स पर भारी बाजार की ताकत।

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राष्ट्रवादी मोदीनॉमिक्स पर भारी बाजार की ताकत।

(वरिष्ठ पत्रकार, प्रवीण कुमार) । देश में राष्ट्रवादी बयार के बीच जो जनभावनाएं मौजूद हैं उनमें से ही लोग दबी जुबान में यह बात अब करने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अप्रतिम लोकप्रियता और सरकार की ताकत को कोई टक्कर दे सकता है तो वह है भारतीय बाजार, भारतीय अर्थव्यवस्था। मीडिया, चुनाव आयोग, केंद्रीय जांच एजेंसियां समेत तमाम संवैधानिक व अन्य संस्थाएं, यहां तक कि पड़ोसी या कहें तो दुश्मन देश पाकिस्तान से भी यह सरकार निपटने में पूरी तरह सक्षम है लेकिन बाजार की जो राजनीतिक ताकत है उसे राष्ट्रवादी औजार से काबू नहीं किया जा सकता। उसका एक बना-बनाया सिद्धांत है जिससे छेड़छाड़ करने का मतलब है वह बेपटरी हो जाता है। सरकार अर्थव्यवस्था के ऐसे दोराहे पर आकर फंस गई है कि उसे यह समझ में नहीं आ रहा कि आगे बढ़ा जाए या पीछे। हालत यह हो गई है कि आगे कुआं दिख रहा और पीछे खाई। जो फैसले बीते पांच सालों में लिए गए खासकर अर्थव्यवस्था को लेकर मसलन नोटबंदी, जीएसटी, बैंको का विलय, कॉरपोरेट को रियायतों के साथ टैक्स छूट आदि वह सब लगातार पीछे की तरफ ही ले जा रहा है। डिमांड और सप्लाई के जिस पेंच में मोदीनॉमिक्स फंस गई है वह देश में बेरोजगारों की बड़ी फौज खड़ी कर गया है। रोजगार संकट दूसरी तरह से संकट की परिस्थितियों को जन्म दे रहा है।

बीते कई सप्ताहों से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण लगातार कारोबारी समुदाय में अपनी पैठ बनाने के लिए एक के बाद एक प्रेस कांफ्रेंस कर देश के बजट की कई व्यवस्थाओं में सुधार किया। आप गौर करेंगे तो जुलाई में पेश किए गए बजट के बाद से आरबीआई ने दरों में दो बार कटौती की लेकिन क्या हुआ? कारोबारी जगत में कोई खास सुधार तो आया नहीं। आरबीआई ने पिछले हफ्ते रेपो रेट में लगातार पांचवीं बार कटौती करते हुए उसे 5.15 फीसदी पर लाने का जो फैसला किया वह पिछले 9 वर्षों में सबसे कम है। रेपो रेट को आप इस तरह से समझ सकते हैं कि यह वह ब्याज दर है जिसपर रिजर्व बैंक देश के सभी व्यापारिक बैंकों को कर्ज देता है। इस लिहाज से बाजार में सस्ता कर्ज पहुंचने की जो गुंजाइश आरबीआई ने बनाने की कोशिश की उससे शेयर बाजार में उछाल आना चाहिए था लेकिन हुआ इसका उलटा। रिजर्व बैंक की घोषणा के बाद शेयर बाजार में अच्छी-खासी गिरावट देखी गई।

भारतीय अर्थव्यवस्था की जो जमीनी हकीकत है उसको देखकर तो यही लगता है कि सरकार की तरफ से अगर कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया तो हालात सुधरने को नहीं। दरअसल कारोबार जगत में सरकार से उम्मीदें खत्म सी हो गई हैं। कोई भी कारोबार आम लोगों और परिवार की आर्थिक परिस्थितियों से अलग नहीं होता। जब आम लोगों की तरफ से मांग खत्म सी हो गई है, उनकी क्रय शक्ति लगातार कमजोर हो रही है तो फिर कारोबारी कब तक उत्पादन का बोझ सहते रहेंगे। सीएमआईई का कंपनियों के पूंजीगत व्यय के आंकड़ों पर गौर करें तो यह खुद-ब-खुद बदहाली की कहानी बयां कर देती है। दिसंबर 2018 में समाप्त तिमाही में यह 3.03 लाख करोड़ रुपये था जो इस वर्ष मार्च तिमाही तक घटकर 2.66 लाख करोड़ रुपये रह गया। आगे की दो तिमाहियों में तो यह 84,000 करोड़ रुपये और 99,000 करोड़ रुपये रह गया। इससे पहले ऐसा 2008 की एक तिमाही में हुआ था। तमाम आर्थिक संकेतक नकारात्मक हैं और ऐसा काफी समय से है। ध्यान दें तो देश के सबसे बड़े कारोबारी समूह के स्वामी मुकेश अंबानी समेत तमाम बड़े कारोबारी नकदी संभाले हुए हैं या अपना जोखिम कम कर रहे हैं, अपने कर्ज चुकता कर रहे हैं तो इस हालात में यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि बाकी लोग निवेश करेंगे।

असल में सवाल यह है कि जीडीपी अनुमान का दावा कर, कॉरपोरेट टैक्स में छूट से कारोबारी जगत को 1.45 लाख करोड़ रुपये की सीधी राहत देने भर से बात नहीं बनने वाली है। यह सब ऐसे औजार हैं जो बाजार में कुछ दिन तक तेजी देती है लेकिन उसके बाद फिर वही ढाक के तीन पात वाली बात हो जाती है। अगर आप याद करें तो टैक्स रियायत के बाद पिछले महीने 24 सितंबर को शेयर बाजार उच्चतम स्तर पर पहुंचा था। लेकिन तब से अब तक बीएसई सेंसेक्स को 2.53 लाख करोड़ रुपये का नुकसान भी तो हो चुका है। ब्याज दर में कटौती समेत अन्य ऐसे फैसले जो बदले गए हैं तथा सुधार भी उसी निराशा की स्थिति पर कुर्बान हो गए। हालांकि दुनिया भर के बाजारों की हालत खराब है। अमेरिका के बारे में भी एक हालिया रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि 50 साल के इतिहास में अमेरिका बेरोजगारी के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। लेकिन भारत की आर्थिक बदहाली के बारे में तमाम विश्लेषक लगातार यह कहने से नहीं हिचक रहे हैं कि भारत की दिक्कतें इसकी अपनी वजहों से है ना कि वैश्विक सुस्ती से। भारतीय बाजार इस बात को कहने से न तो चूक रही है और न ही डर रही है। लेकिन सरकार समझे तो सही। अगर सरकार के वित्तीय मामलों के जानकार मोदीनॉमिक्स की हकीकत को समझ नहीं पा रहे या समझना नहीं चाहते तो फिर भगवान ही मालिक।