सोनिया के त्याग से कांग्रेस मजबूत।

सोनिया के त्याग से कांग्रेस मजबूत।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का जन्म ( 9 दिसंबर 1946) भले हीं इटली (गांव लूसियाना, वैनेतो)  में हुआ हो लेकिन आज वे एक आम भारतीय से अधिक पारंपरिक भारतीय नारी और राजनेता हें। वे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा होने के साथ साथ यूपीए (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) की भी प्रमुख हैं। आम तौर पर सोनिया गांधी पर आरोप लगता है कि वे राजनीति मे परिवारवाद का हिस्सा हैं? लेकिन वास्तव में देखा जाये तो जनता का ही अटूट विश्वास है श्रीमती गांधी के प्रति। यदि जनता का विश्वास श्रीमती गांधी के प्रति नहीं होता तो कांग्रेस पार्टी कब का हासिये पर चली गई होती।

राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने राजनीति में नहीं आने की बात कही थी। और उन्होंने इसका बखूबी लंबे समय तक पालन भी किया। राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सोनिया गांधी से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी लेकिन उन्होंने यह पद नहीं स्वीकारा। और अपने दोनो बच्चों राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के लालन पालन में जुट गई।

जनता के दबाव में कांग्रेस अध्यक्ष बनी।

तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी 1996 का आम चुनाव हार चुकी थी। कांग्रेस की स्थिति काफी नाजूक हो गई। ऐसे में 1997 में कांग्रेस के दिग्गज नेता सीताराम केसरी ने कांग्रेस को संभालने की पूरी कोशिश की लेकिन वह भी पूरी तरह असफर रहे। एक समय ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी अपने अंतिम चरण की ओर है। लेकिन इसी बीच सोनिया गांधी पर कांग्रेस के नेताओं और जनता का भारी दवाब पड़ा सक्रिय राजनीति मे आने का। और आखिर में जनता के दबाव में आकर सोनिया गांघी ने 1997 में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ली। और 62 दिनों के अंदर 1998 में वे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा चुनी गई। और आज तक वे कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा हैं।  

सोनिया गांधी पर आरोप।

श्रीमती सोनिया गांधी पर विरोधी दलों ने जो परिवारवाद का आरोप लगाया था उसे आम जनता ने नकार दिया। वहीं उनके खिलाप विपक्षी दलें विदेशी मूल का मुद्दा लगातार उठाते रहे।  जनता ने उसे भी नकार दिया। उनपर एक आरोप यह भी लगा कि वे हिन्दी नही जानती है। भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। देश के करोड़ो लोग दूसरे राज्यों की भाषा को नहीं जानते लेकिन सोनिया गांधी ने हिंदी मे लगातार भाषण देकर सबको अचंभित कर दिया।

लोकसभा में विपक्ष की नेता बनी।  

श्रीमती गांधी को 1998 में अध्यक्ष पद संभालने के अगले साल ही 1999 में आम चुनाव का सामना करना पड़ा। इस समय बीजेपी काफी मजबूत स्थिति में थी वहीं कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति दयनीय थी। लेकिन श्रीमती गांधी के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं मे उमंग थी। आम जनता भी श्रीमती गांधी के पक्ष में जुटते गये। और 1999 के आम चुनाव में सोनिया गांधी दो जगहों ( बेल्लारी, कर्नाटक और अपने दिवंगत पति राजीव गांधी के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी) से चुनाव लड़ी और भारी बहुमत से दोनो जगहों पर विजयी हुई। 1999 में 13 वीं लोक सभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गई।

गठबंधन सरकार के दस साल।

साल 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को सत्ता मे लाने के लिये श्रीमती गांधी ने पूरी ताकत लगा दी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और तत्कालीन उपप्रधानमंत्री व गृहमंत्री  के नेतृत्व में बीजेपी की मजबूत स्थिति और धूआंधार प्रचार के बावजूद आम जनता श्रीमती गांधी के चुनावी सभा में बड़ी संख्या मे जुटने लगे थे। यह संकेत था कि श्रीमती गांधी के नेतृत्व मे कांग्रेस पार्टी एक बार फिर अपनी चमक को वापस लाने में सफल रहेगी। लेकिन राजनीति के पंडित माने जाने वाले लोगो मे यह विश्वास नहीं था।

2004 के आम चुनाव ने राजनीतिक विश्लेषकों के एक बड़े तबके को गलत सिद्ध कर दिया। इस बार सोनिया गांधी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से चुनाव लड़ी और शानदार जीत हासिल की। और अपनी पार्टी को भी बड़ी सफलता दिलायी।  कांग्रेस पार्टी को 200 से ज्यादा सीटें मिली। लेकिन यह आंकड़ा बहुमत से काफी दूर था।  इससे पहले भी किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिली। गठबंधन की सरकार बनाने का दौर था।

श्रीमती गांधी पर बड़ी जिम्मेवारी थी। एक तो पूर्ण बहुमत नही उपर से गठबंधन की सरकार चलाना। बीजेपी नेता अटल बिहारी वाजपेयी  के नेतृत्व में एनडीए की सरकार पांच साल पूरा कर चुकी थी। विरोधी दल यही कह रहे थे कि कांग्रेस कभी भी गठबंधन की सरकार पांच साल नहीं चला सकती है। लेकिन श्रीमती गांधी ने इस चुनौती को शानदार तरीके से सामना किया और 16 दलों की पार्टियों (यूपीए) की सरकार बनाई और पूरे पांच साल सरकार चली। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह बने। श्रीमती गांधी ने अपने त्याग से इतनी मजबूत बुनियाद रखी कि 2009 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी। जो अब दसवें साल में है।

 प्रधानमंत्री पद का त्याग।

 साल 2004 के आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी को 200 से अधिक सीटे मिली थी लेकिन यह आंकड़ा बहुमत से काफी दूर था। लेकिन गैर एनडीए दल जिसमे वामपंथी और लालू यादव की पार्टी आरजेडी भी शामिल थी, श्रीमती गांधी को प्रधानमंत्री पद के लिये बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हो गये। कुल 16 पार्टियो के नेताओं ने श्रीमती गांधी को समर्थन पत्र दिया। और सभी का मानना था कि सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेगी। जोरदार समर्थन के बावजूद श्रीमती ने सबको चौका दिया। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। कांग्रेस पार्टी के अलावा सारे सहयोगी दल सोनिया गांधी के अलावा किसी और को प्रधानमंत्री मानने के लिये मानसिक रूप से तैयार नहीं थे। लेकिन श्रीमती गांधी के आग्रह पर सॆभी दल उनकी बातों को मानते हुए मनमोहन सिंह के नाम पर राजी हो गये।

 

श्रीमती गांधी ने 18 मई को मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने का अनुरोध किया लेकिन श्रीमती गांधी ने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधान मंत्री बने पर सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया।

भारी समर्थन मिलने के बावजूद सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद का त्याग कर भारतीय राजनीति में एक मिसाल कायम कर दी।

सोनिया गांधी का बीजेपी विरोध

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना को देखते हुए बीजेपी ने पूरजोर विरोध किया। विदेशी मूल का मूद्दा उठाया।  बीजेपी की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज और उमा भारती ने बाल मुडवाने तक की बात कह डाली। लोगों को लगने लगा कि इनके विरोध के कारण ही श्रीमती गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। लेकिन वास्तविक स्थिति इससे एकदम अलग थी।

जानकारों का कहना है कि राजनीति मे किसी न किसी कारणवश विरोध होता ही रहता है। विदेशी मूल का मुद्दा विरोध का मुख्य कारण था लेकिन जिस प्रकार से श्रीमती गांघी को समर्थन मिले उसके सामने यह विरोध कोई मायने नहीं रखता था। श्रीमती गांधी कांग्रेस पार्टी को पहले की तरह मजूबत करना चाहती थी। देश में राजनीतिक स्थिरता लाना चाहती थी। उनके मुख्य एजेंडे में सबसे उपर देश की प्रगति थी। इनसब बातो को ध्यान में रख उन्होंने प्रधानमंत्री पद तक का त्याग कर दिया। जानकारों का कहना है कि सोनिया गांधी का मानना था कि प्रधानमंत्री पद से अधिक महत्वपूर्ण था राष्ट्र का विकास और विकास के लिये जरूरी था राजनीतिक स्थिरता।

 आदर्श राजनीति की मिसाल –

राजनीति मे कब किस बात को लेकर विरोध हो जाये पता नही। ऐसा ही हुआ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ। उनपर विरोधी दलों ने आरोप लगाया कि श्रीमती गांधी लोकसभा का सदस्य होने के साथ साथ राष्ट्रीय सुझाव समिति की अध्यक्ष भी है। दोनो लाभ का पद है। इसको लेकर बीजेपी ने जोरदार राजनीति की। विरोध किया। फिर क्या था सोनिया गांधी ने एक आदर्श विचार रखने के लिये 23 मार्च 2006 को राष्ट्रीय सुझाव समिति के अध्यक्ष पद के साथ साथ लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया।

श्रीमती गांधी के इस कदम को दूसरा बड़ा त्याग माना गया और देशभर में प्रशंसा हुई। जब मई 2006 में  उप चुनाव हुए तो वे रायबरेली से एक बार फिर सासंद चुनी गई। जनता ने उनके पक्ष में खुलकर मतदान किया। उन्होंने अपने विरोधी उम्मीदवार को चार लाख से अधिक वोटों से हराया। 2009 के आम चुनाव में भी जनता ने उन्हें बड़ा समर्थन दिया। और यूपीए की सरकार बनी।

 

बहरहाल कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी  ने प्रधानमंत्री पद के लिये जो त्याग किया, उनके इस कदम से बीजेपी क्लीन बोल्ड हो गई है। बीजेपी सोनिया गांधी का जितना विरोध करती गई उतना हीं सोनियां गांधी मजबूत होती गई। 2 अक्टूबर 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित करने वाली श्रीमती सोनिया गांधी यदि आज राजनीतिक के सबसे बड़े मुकाप पर बनी हुई है तो इसकी वजह सिर्फ आम जनता का समर्थन ही है। जब देश की आम जनता उन्हें समर्थन कर रही है तो ऐसे में परिवारवाद का मुद्दा हो या कोई अन्य, अधिक मायने नहीं रखता।