बिहार की दिलचस्प होती राजनीति भाजपा नीतीश का साथ छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकती : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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बिहार की दिलचस्प होती राजनीति भाजपा नीतीश का साथ छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकती : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

बिहार विधानसभा का वर्तमान कार्यकाल समाप्ति की ओर बढ़ रहा है और आगामी नवंबर में नई विधानसभा के चुनाव होने की संभावना है। हम इसे संभावना इसलिए कह रहे हैं कि उस चुनाव पर मौजूदा कोरोना संकट ने सवालिया निशान खड़ा कर दिया है। कोरोना संकट बद से बदतर होता जा रहा है और कुछ कहा नहीं जा सकता कि अगले दो से तीन महीने में इसकी क्या स्थिति होगी। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के पास इस संकट से जूझने के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, इसलिए उन्होंने लंबे समय तक देश को लॉकडाउन की स्थिति में रखा, हालांकि उसके कारण लाखों करोड़ रूपये की आर्थिक क्षति हुई। क्षति के बावजूद कोरोना का चेन तोड़ने में हम सफल नहीं हो पाए हैं। अब लॉकडाउन में भी बहुत ढील दी जा चुकी है, जिसके कारण कोरोना के मरीजों की संख्या और भी तेजी से बढ़ने की आशंका बनी हुई है।

वैसे बिहार एक सुरक्षित राज्य था, जिसमें लाॅकडाउन शुरू होने के पहले कोरोना मरीज लगभग थे ही नहीं। लेकिन प्रवासी मजदूरों के वहां लौटने के बाद स्थिति वहां बद से बदतर होती जा रही है। अन्य राज्यों के सरकारी तंत्र की तरह वहां का सरकारी तंत्र भी भ्रष्ट है। इसलिए नीतीश कुमार के लाख प्रयासों के बावजूद कोरोना की बीमारी वहां भी बढ़ती जा रही है। उसकी वृद्धि का यही पैटर्न जारी रहा, तो फिर प्रदेश में अनेक प्रकार की नई बंदिशें लगाई जा सकती हैं। खासकर सोशल डिस्टेंसिंग को और भी कड़ा किया जा सकता है। और उस कड़े सोशल डिस्टेंसिंग की वजह से चुनाव को टालना भी पड़ सकता है, क्योंकि चुनाव में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कराया जा सकता। चुनावों में बड़ी बड़ी आम सभाएं होती हैं। चुनावी सरगर्मियां जब तेज रहती हैं, तो अनेक जगहों पर और अनेक मौकों पर लोगों का जमावड़ा लगना अपरिहार्य होता है। प्रत्याशियों के नामांकन से मतदान और मतगणना तक ऐसे अनेक मौके आते हैं, जहां सोशल डिस्टेंसिंग का पालन नहीं कराया जा सकता। यही कारण है कि वहां समय पर चुनाव नहीं कराया जाना भी एक संभावना हो सकती है।

वह संभावना तो अपनी जगह, लेकिन बिहार में चुनाव पूर्व सरगर्मियां शुरू हो चुकी हैं। वहां पक्ष और विपक्ष दोनों गठबंधन की राजनीति करते हैं, इसलिए गठबंधन के घटकों की आपसी खींचतान को न केवल महसूस किया जा सकता है, बल्कि उसे साफ साफ देखा जा सकता है। फिलहाल सबसे ज्यादा खींचतान भारतीय जनता पार्टी और जनता दल युनाइटेड के बीच हो रही है। 2014 और 2015 के आमचुनावों को छोड़कर दोनों लंबे अरसे से गठबंधन में हैं और उसमें जनता दल यू का पलड़ा हमेशा भारी रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा की बराबर सीटें लड़कर जनता दल यू ने कम से कम बराबरी का अपना स्तर बरकरार रखने में सफलता पाई।

लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि बिहार विधानसभा चुनाव में भी लोकसभा चुनाव वाला फार्मूला ही अपनाया जाय। यानी जितनी सीट पर भाजपा लड़े, उतनी ही सीट पर जदयू भी लड़े और शेष सीटें एलजेपी को दे दी जायं। भाजपा नेता एलजेपी को 40 सीटें देना चाहते हैं। लेकिन जदयू को यह फॉर्मूला मंजूर नहीं है। 2010 के विधानसभा चुनाव में जदयू 141 सीटों पर लड़ा था, जबकि भारतीय जनता पार्टी सिर्फ 102 सीटों पर ही लड़ी थी। जदयू इस बार भी इसी फार्मूला पर सीटों का बंटवारा चाहता है और एलजेपी को दोनों पार्टियों द्वारा बराबर बराबर संख्या में कुछ सीटें छोड़ देने का पक्षधर है।

दूसरी तरफ प्रदेश भाजपा में एक हिस्सा ऐसा है, जो जदयू से नाता तोड़े देना चाहता है और भाजपा को प्रदेश की अधिकांश सीटों पर खुद लड़ते देखना चाहता है। पर केन्द्रीय नेतृत्व नीतीश कुमार के साथ मोलभाव कर ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करना चाहता है। अगर उसकी चली, तो वह चाहेगा कि भाजपा और जदयू बराबर सीटों पर लड़े। पर नीतीश कुमार को यह कभी मंजूर नहीं होगा, क्योंकि उन्हें पता है कि जब सत्ता की बात होती है, तो भाजपा किसी तरह का समझौता नहीं करती और भरसक सत्ता को अपने पास ही रखने देना चाहती है। लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र की मोदी सरकार में जदयू का कोई सांसद इसी कारण से मंत्री नहीं है।

इसलिए यदि भाजपा के विधायकों की संख्या ज्यादा हुई, तो वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने ही नहीं देगी, भले ही चुनाव प्रचार के दौरान उसके नेता चीख चीख कर नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करते रहें। नीतीश कुमार को पता होगा कि किस तरह बीजेपी ने महाराष्ट्र में शिवसेना को आधे कार्यकाल के लिए सरकार का नेतृत्व देने के अपने चुनाव पूर्व वायदे की धज्जियां उड़ा दीं।

सवाल उठता है कि नीतीश और भाजपा में किसको झुकना पड़ेगा? पुराना अनुभव बताता है कि नीतीश कुमार राजनैतिक मोलभाव करने में हमेशा भाजपा पर भारी पड़ते रहे हैं। वे गठबंधन में अपना महत्व भलीभांति समझते हैं और भाजपा की कमजोरी भी समझते हैं। उन्हें पता है कि बिहार में भाजपा के पास नरेन्द्र मोदी के नाम के अलावा कुछ भी नहीं है और उन्हें यह भी पता है कि विधानसभा चुनाव में अब नरेन्द्र मोदी का जादू नहीं चलता। वे झारखंड ही नहीं, बल्कि दिल्ली, महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में भी यह देख चुके हैं। इसलिए बिहार के विधानसभा चुनाव में भी मोदी का जादू चलने की संभावना कम ही है। दूसरे प्रदेशों से बिहार लौटे मजदूरों में भी नरेन्द्र मोदी को लेकर भयंकर आक्रोश है, क्योंकि उन्होंने उन मजदूरों के बारे में लॉकडाउन की घोषणा करते हुए कुछ नहीं सोचा था।

यही कारण है कि यदि भाजपा अकेले चुनाव लड़ी तो उसकी स्थिति दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों से भी बदतर हो सकती है। रामविलास पासवान उसको डूबने से बचा नहीं सकेंगे। भाजपा को वहां सत्ता में सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार का गठबंधन ही वापस ला सकता है। भाजपा नेता भी इस तथ्य को समझ रहे हैं और वे लगातार कह रहे हैं कि नीतीश के नेतृत्व में ही अगला चुनाव लड़ेंगे। इसलिए वे ज्यादा से ज्यादा अधिकतम सीटें लेने के लिए दबाव की राजनीति ही कर सकते हैं, लेकिन अकेले दम चुनाव लड़ने का दम उनमें नहीं है।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)।