आजीविका से अधिक महत्व जीवन को दिया गया अब लॉकडाउन हटाने में हीं समझदारी - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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आजीविका से अधिक महत्व जीवन को दिया गया अब लॉकडाउन हटाने में हीं समझदारी - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

भारत में लॉकडाउन का यह तीसरा दौर चल रहा है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 14 मार्च को पहले दौर की घोषणा की थी, तो देश ने उसका भारी स्वागत किया था। स्वागत इस तथ्य के बावजूद किया था कि लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर जहां तहां अटक गए थे और लॉकडाउन के दौरान उनका क्या होगा, इस पर कोई विचार मोदी सरकार ने नहीं किया था। उन्हें मोदीजी ने राम भरोसे छोड़ दिया था। उनका क्या हुआ, यह तो अलग बात है, लेकिन लॉकडाउन से जो उम्मीद मोदीजी और पूरे देश ने की थी, वह पूरी नहीं हुई। 

लड़खड़ाती दिखी मेडिकल क्षमता :

उम्मीद थी कि लॉकडाउन की समाप्ति के दिन आते आते स्थितियां बेहतर होती जाएंगी। कोरोना वायरस का प्रसार रुक जाएगा और इस बीच उस वायरस से इलाज का ढांचा भी तैयार हो जाएगा। यदि ऐसा हो पाता, तो फिर लॉकडाउन समाप्त कर दिया जाता।लेकिन हुआ बिल्कुल उलटा। जैसे जैसे 14 अप्रैल का समय नजदीक आता गया, कोरोना का कहर अपनी जद में देश की ज्यादा आबादी को लेता जा रहा था। इस बीच कोरोना से लड़ने की हमारी मेडिकल क्षमता भी लड़खड़ाती दिखने लगी। स्वास्थ्यकर्मियों के पीपीई की कमी और उपलब्ध पीपीई का दोषयुक्त होना भी सामने आने लगा। वायरस की जांच के किट्स की कमी भी साफ दिख रही थी। यानी तीन सप्ताह पहले जो समस्याएं थीं, वे समस्याएं और भी विकराल रूप में 14 अप्रैल को खड़ी दिखीं। महामारी के भारी संक्रमण से तो हम बच गए। यानी लॉकडाउन ने इतना तो किया कि मरीजों की संख्या लाखों में नहीं पहुंची, लेकिन जिस नतीजे की उम्मीद हम प्रथम लॉकडाउन के कर रहे थे, वह उम्मीद पूरी नहीं हुई और 14 अप्रैल को ही अगले 20 दिनों के लिए एक और लॉकडाउन की घोषणा प्रधानमंत्री ने कर दी।

श्रमिकों की मृत्यु और घरेलू हिंसा में बढोतरी : 

दूसरे लॉकडाउन का भी वही हश्र हुआ, जो पहले लॉकडाउन का हुआ था। हम कोरोना वायरस को नियंत्रित करने में विफल रहे। संक्रमण के आंकड़े लगातार बढ़ रहे थे और लॉकडाउन के कारण होने वाली अन्य समस्याएं भी लगातार गहराती जा रही थीं। पता नहीं कितने मजदूरों की रास्ते में मौत हुई। पता नहीं कितने लोग भूखे मर गए। लॉकडाउन के कारण घरेलू हिंसा में भी भारी वृद्धि हुई। घर की महिलाएं उसका सबसे बड़ा शिकार हुईं। अनेक आत्महत्याओं के मामले भी सामने आए। शायद बंदी के कारण पैदा हुए अवसाद के कारण वैसा हुआ था। उत्तर प्रदेश में एक महिला ने तो अपने घर के अन्य सदस्यों की हत्या कर खुद आत्महत्या भी कर ली थी। हो सकता है, उसका कारण कुछ और होगा, लेकिन बंद के कारण बढ़ते मनोरोग के योगदान को भी उस कांड के लिए नकारा नहीं जा सकता। इतना ही नहीं, अन्य कारणों से बीमार लोग लॉकडाउन के दौरान मेडिकल सेवा से वंचित होने के कारण भी काल के शिकार हो गए। इमरजेंसी की स्थिति में उन्हें अस्पताल तक पहुंचने के लिए गाड़ियां नहीं मिलीं और अनेक तो अस्पताल पहुंचकर भी मेडिकल सेवा से वंचित होकर इस दुनिया से चल बसे।

लॉकडाउन की वजह से करोड़ों हुए बेरोजगार :

इसके अलावा देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। लॉकडाउन में न केवल असंगठित क्षेत्र के करोड़ों की नौकरियां ले लीं, बल्कि संगठित क्षेत्र में भी लाखों लोगों की नौकरी चली गई है। प्रधानमंत्री की इस अपील का निजी कंपनियों पर कोई असर नहीं पड़ा कि वे लोगों को रोजगार से न निकालें और उनका वेतन न काटें। यानी वह सबकुछ हुआ, जो लॉकडाउन के दौरान हो सकता था और वह नहीं हुआ, जिसकी उम्मीद में लाॅकडाउन घोषित किया गया था। इसके द्वारा कोरोना वायरस के संक्रमितों की चेन तोड़ने की कोशिश की गई थी। यह चेन नहीं टूटी और कोरोना के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है। 

मुंबई व दिल्ली समेत बड़े शहर सबसे ज्यादा प्रभावित :

बड़े शहर इसके सबसे बड़े शिकार हैं। मुंबई, दिल्ली और अहमदाबाद सर्वाधित प्रभावित शहरों में से हैं। मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी भी कहा जाता  है। वहां मौतों की संख्या का विकराल रूप लेना अपने आप में बड़ी चिंता का विषय है और बंदी के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अहमदाबाद भी एक बड़ी औद्योगिक नगरी है। उसके संक्रमण से भी अर्थव्यवस्था का भारी नुकसान हो रहा है। दिल्ली में रिस्क लेकर केजरीवाल सरकार ने आर्थिक गतिविधियों को कुछ स्तर पर खोलने की घोषणा कर दी है, हालांकि कुछ बंदिशें भी बरकरार है। यह इस तथ्य के बावजूद किया गया है कि पूरी दिल्ली केन्द्र सरकार द्वारा निर्धारित रेड जोन में आती है। लेकिन केजरीवाल को यह कदम उठाना पड़ा है, क्योंकि अप्रैल महीने में दिल्ली की राज्य सरकार को मिलने वाले राजस्व में भारी कमी आई। पिछले साल अप्रैल महीने में दिल्ली सरकार को 3500 करोड़ रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ था, जो इस साल के अप्रैल में मात्र 500 करोड़ पाया गया। जाहिर है, राजस्व की हानि के अनेक खतरे हैं और उन खतरों से बचने के लिए ही केजरीवाल सरकार ने न केवल अनेक मोर्चे पर आर्थिक गतिविधियों को खोल दिया है, बल्कि शराब पर 70 फीसदी का कोरोना टैक्स भी डाल दिया है। लोग इसके लिए केजरीवाल को चाहे तो मजाक उड़ा लें, लेकिन राजस्व पाने के लिए यह जरूरी था।

राजस्व हानि की जो समस्या दिल्ली की प्रदेश सरकार के सामने है, वह अन्य सरकारों के सामने भी उपस्थित है। राज्य सरकारें ही क्यों, केन्द्र सरकार को भी राजस्व की हानि हो रही है। तेल उत्पादों पर लगे टैक्स से केन्द्र सरकार को भारी राजस्व प्राप्ति होती है और लॉकडाउन में तेल उत्पादों की बिक्री जबर्दस्त तरीके से घट गई है। केन्द्रीय जीएसटी में भी भारी गिरावट आई है। संकट की इस घड़ी में राज्य सरकारें केन्द्र से मदद की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन केन्द्र मदद तो तभी कर पाएगा, जब वह मदद करने की स्थिति में होगा।

बहरहाल, तीसरे दौर का लॉकडाउन समाप्त होने के साथ भी कोराना के संक्रमण की समस्या हल होने के आसार नहीं दिखते हैं। वैसी हालत में अब मोदी सरकार के पास बहुत ही सीमित विकल्प है। उन्होंने आजीविका के ऊपर जीवन को महत्व दिया था, लेकिन लंबे समय तक आजीविका शून्य कर दें, तो फिर जीवन भी नहीं रहता। इसलिए खतरे लेकर भी अब लॉकडाउन को हटा देने में ही समझदारी है। हां, वरिष्ठ नागरिक और पहले से ही खराब स्वास्थ वाले लोगों को घर में रहने की हिदायत के साथ यह बंदी हटे।

 

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)।