1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस ( Labour Day)मनाया जाता है। हमारे समाज व देश की आर्थिक उन्नति इन्हीं पर टिकी होती है। मशीनी युग के बावजदू हमारे श्रमिकों का कोई विकल्प नहीं। मानवीय श्रम का सबसे आदर्श उदाहरण हैं श्रमिक, सफाई कर्मी, खेतीहर मजदूर और किसान। इनके श्रम के बिना विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। इस बार का श्रमिक दिवस ऐतिहासिक है, कोरोना महामारी के बीच। इस महामारी ने अमीर हो या गरीब सभी को अपने चपेट में ले लिया है। इससे बचने का कोई दवा नहीं, सिर्फ एक ही दवा है ऐहतियात और वो भी बतौर लॉकडाउन।
लॉकडाउन की स्थिति में सबसे ज्यादा आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहै है श्रमिकों को। ये रोज कमाते हैं और रोज अपने परिवारों के भूख मिटाते हैं। लेकिन महामारी की वजह से सारे कार्य ठप है। इनके पास कोई काम नहीं। कोई आमदनी नहीं। खुद भी और परिवार को भी एक टाइम का भोजन उपलब्ध कराने में असमर्थ है। सरकारें कोशिश कर रही हैं कि कोई भी भूखा नहीं रहे। सोशल मीडिया में भी यह आ रहा है कि सरकार ने इनके लिये इंतजाम किये हैं लेकिन वास्तविक स्थिति सभी जानते हैं के ये काफी नहीं है।
आमतौर पर देश में एक राज्य के श्रमिक रोजी रोटी के तलाश में दूसरे राज्य आते जाते हैं। दिल्ली और मुंबई में बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों की श्रमिक हैं। वे अब अपने अपने राज्य को लौटने को आतुर हैं लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं। कामकाज बंद होने से किसी के पास रोजगार नहीं। अपने अपने घर जाने के लिये कोई साधन नहीं। ट्रेन-बसें सभी बंद हैं। कोरोना को देखते हुए सरकार ने सोशल-दूरी बनाये रखने की बता कही है। जीवन रक्षा के लिये इसका पालन जरूरी है लेकिन श्रमिक लाचार हैं कि क्या करें? बड़ी संख्या में श्रमिक पलायन करने लगे हैं वो भी पैदल। हजार हजार किलोमीटर का सफर पैदल सफर कर रहे हैं। कोई कोई श्रमिक ठेले का इस्तेमाल कर अपने अपने राज्य पहुंच रहे हैं। कई ने इस वजह से दम भी तोड़ दिया है। उनका कहना है कि हालात ऐसे हैं कि कोरोना से मृत्यु बाद में होगी उससे पहले वे भूख से मर जायेंगे।
संगठित व असंगठित क्षेत्र के मजदूर :
जो श्रमिक संगठित क्षेत्र के हैं यानी किसी सरकारी या बड़ी कंपनियों के अंतर्गत स्थायी रूप से कार्यरत हैं उनकी स्थिति बेहतर है। उन्हें मासिक वेतन, महंगाई भत्ता, पेंशन, मेडिकल सुविधा समेत अन्य प्रकार की सुविधाएं मिलती है लेकिन जो असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं उनकी स्थिति चरमरा गई है। असंगठित क्षेत्र के श्रमिक प्रतिदिन अपना श्रम बेचते हैं और प्रतिदिन कमाते हैं। दैनिक मजदूरी हीं उनके जीवन यापन का आधार है। जब तक उन्हें काम मिलता या जबतक वह कार्य करने में सक्षम है तभी तक उसका गुजारा होता है। अपने देश भारत में असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मजदूरों की तो यही स्थिति है। इतना हीं नहीं इन्हें कोई मेडिकल सुरक्षा नहीं मिलती। कोई बोनस नहीं मिलता। यहां तक कि इन्हें मजदूरी भी कम दी जाती है। इन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा प्राप्त नहीं होती है चाहे आर्थिक हो या सामाजिक।
श्रम का कोई विकल्प नहीं :
इसमें कोई दो राय नहीं कि धन का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यह भी सत्य है कि श्रम का कोई विकल्प नहीं। कल-कारखाने का निर्माण करना हो या ऊंची ऊंची इमारतों का या सड़के व पूल निर्माण करने हो तो यह कार्य बिना श्रमिकों के संभव नहीं। इतना हीं नहीं खेती करनी हो या ईटें बनाने हों या नहरों व झीलों की खुदाई करनी हो तो श्रमिको की जरूरत होती है। बड़ी बड़ी मशीने सहयोग करती है काम को जल्द पूरा करने में लेकिन श्रमिकों को बिना कोई कार्य संभव नहीं।
श्रमिकों की स्थिति में सुधार :
समय के साथ साथ श्रमिकों के स्थिति में सुधार भी होते गये हैं। पहले श्रमिकों की स्थिति दयनीय थी। कल-कारखानों में काम करने की कोई सीमा नहीं होती थी। खतरनाक जगहों पर काम करने के लिये उनके पास कोई उपकरण नहीं होते थे सुरक्षा के लिये। जमींदार और बड़े बड़े किसान एक तरह से श्रमिकों को बंधुआ मजदूर बनाकर रखते थे। अधिक से अधिक श्रम लिया जाता था और कम से कम पारिश्रमिक दिया जाता था। यह स्थिति पूरी दुनिया में थी। अमेरिका और यूरोप में श्रमिको के हित के लिये आवाजें उठने लगी। और सुधार होता गया। आज श्रमिकों के लिये सरकार की ओर से न्यूजनतम मजदूरी की घोषणा की जाती है। अतिरिक्त श्रम कराने पर अतिरिक्त पैसे दिये जाते हैं। काम के घंटे निर्धारित हैं। साप्ताहिक छुटी दी जाती है। उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार भी हो रहा है। मजदूरों की समस्याओं को निपटाने के लिये श्रम-न्यायलय भी ओपन किये गये हैं। बच्चो से काम कराने को गैरकानूनी करार दिया गया है। अमेरिका और यूरोप के देशों में इसका पालन एकदम नियमानुसार किया जाता है। भारत में भी ऐसी स्थिति बन रही है लेकिन यहां अभी व्यवहारिक सुधार की और जरूरत है।
श्रमिक दिवस क्यों मनाते हैं 1 मई को :
1 मई ( 1 May) को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाते हैं। दरअसल कारखाने के मालिकों और जमींदारों के आचरण से श्रमिक परेशान थे। समय समय पर विरोध की आवाजें बुलंद भी होती रही। साल 1986 के शुरूआत में शिकागो में श्रमिक आंदोलन होने लगे। श्रमिकों ने मांग की कि काम की अवधि 8 घंटे और सप्ताह में एक दिन छुट्टी दी जाये। हड़ताल किये गये। इसी बीच एक व्यक्ति ने बम विस्फोट कर दिया। प्रदर्शन स्थल पर अफरातफरी मच गई। यह विस्फोट किसने किया किसी को पता नहीं। कहा जाता है कि कारखाने के मालिकों ने हीं विस्फोट कराये। लेकिन पुलिस ने श्रमिकों पर गोलियां चलाई। स्थिति विस्फोट हो गई। कई श्रमिक मारे गये। पुलिस अधिकारी भी मारे गये। चार लोगों को फांसी दे दी गई हेमार्केट में। इस घटना ने दुनिया भर के आम लोगों को क्रोधित कर दिया। जिन्हें फांसी दी गई उन्हें आम लोगो ने शहीद का दर्जा दिया। इस दिन को मई दिवस के नाम से जाने जाना लगा। साल 1989 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया कि 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए, तब से ही दुनिया के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा। भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है।
बहरहला कोरोना की वजह से भारत समेत पूरी दुनिया में असंगठित क्षेत्रों के श्रमिको की स्थिति दयनीय हो गई है। इस समय उनके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। उन्हें काम देने की जरूरत है। ऐसे में भारत में मनरेगा को विस्तार देने की जरूरत है। यह वरदान साबित होगा।
नोट - वरिष्ठ पत्रकार राजेश कुमार globalkhabar.com के संपादक हैं। )