जनगणना के साथ ओबीसी की गणना भी होगी महाराष्ट्र में। विधान सभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित। बिहार चुनाव में भी सुनाई देगी इसकी गूंज : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

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जनगणना के साथ ओबीसी की गणना भी होगी महाराष्ट्र में। विधान सभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित। बिहार चुनाव में भी सुनाई देगी इसकी गूंज  : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

महाराष्ट्र विधानसभा में विधायक उस समय अवाक रह गए जब स्पीकर नाना भाऊ पटोले ने उनके सामने जनगणना से संबंधित प्रस्ताव रखा और विधानसभा को उस पर मतदान करने को कहा। वह प्रस्ताव सरकार की ओर से नहीं आया था। कार्य मंत्रणा समिति द्वारा भी उसे सूचीबद्ध नहीं किया गया था। विधानसभा का वह अधिवेशन सिर्फ एक दिन के लिए ही बुलाया गया था और उसमें संसद द्वारा अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोकसभा और विधानसभा में मिल रहे आरक्षण को दस और साल के लिए बढ़ाने के फैसले का अनुमोदन करना मात्र था। संसद का वह फैसला संविधान का हिस्सा बन चुका है और महाराष्ट्र की विधानसभा का वह सत्र महज एक औपचारिकता थी। जब सत्र में वह काम पूरा हो गया, तो एकाएक स्पीकर पटोले ने अपना वह प्रस्ताव पढ़ा। वह प्रस्ताव था जनगणना 2021 के दौरान ओबीसी की गणना करने का। सरकारी पक्ष ने कहा कि यह एक अच्छा प्रस्ताव है, लेकिन यह सत्र के एजेंडे में नहीं था, इसलिए इस पर अगले सत्र में हम चर्चा कर सकते हैं। लेकिन स्पीकर ने कहा कि तबतक बहुत देर हो जाएगी, इसलिए बेहतर है कि इसी सत्र में इस प्रस्ताव को पारित कर दिया जाय। स्पीकर की इच्छा का सम्मान करते हुए उस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पास कर दिया गया। सरकारी पक्ष ने तो उसका समर्थन किया ही, विपक्ष के नेता फडनवीस ने भी उसका समर्थन करते हुए कहा कि ओबीसी की गणना होनी चाहिए।

फडनवीस भारतीय जनता पार्टी के हैं और केन्द्र में उनकी ही पार्टी की सरकार है, लेकिन उनकी सरकार जाति जनगणना नहीं करवा रही है। लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार ने फैसला किया था कि 2021 में ओबीसी की गणना भी कराई जाएगी। लेकिन वह चुनाव के पहले की बात थी। चुनाव के बाद प्रचंड सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी अपने उस निर्णय को भूल गए। यहां यह बता देना आवश्यक है कि वह कोई चुनावी वायदा नहीं था, बल्कि मोदी मंत्रिमंडल का फैसला था कि ओबीसी की गिनती भी जनगणना में होगी, लेकिन दुबारा सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार अपने पुराने निर्णय से पलट गई। लेकिन इसके कारण जाति जनगणना की मांग कमजोर नहीं हुई है। अभी भी इसके लिए अभियान चल रहे हैं और महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर का वह प्रस्ताव उसी अभियान के दबाव का नतीजा था। स्पीकर ने कहा भी लोग भारी संख्या में उनसे मिलते हैं और कहते हैं कि ओबीसी की जनसंख्या का ताजा आंकड़ा जुटाया जाना चाहिए, क्योंकि अभी जो ओबीसी की जनसंख्या का जो आंकड़ा है, वह 1931 में कराई गई जनगणना के आधार पर है।

1931 के बाद जाति जनगणना हुई ही नहीं। 1941 में दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था और उसके कारण संसाधनों के अभाव का हवाला देते हुए भारत की ब्रिटिश सरकार ने ढंग से जनगणना कराई ही नहीं। 1947 में भारत आजाद हो गया। 1951 में आजाद भारत की जनगणना हुई और उसमें जाति की जनगणना की ही नहीं गई। कहा गया कि जाति जनगणना से देश मे बिखराव पैदा होगा। देश के विभाजन का हवाला दिया गया। दिलचस्प बात यह है कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था, इसलिए उस तर्क से धर्म के आधार पर जनगणना नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन जनगणना में धर्म के आधार पर लोगों को गिना गया और किस धर्म के मानने वाले कितनी संख्या में है, इसका आंकड़ा एकत्र किया गया, लेकिन जाति जनगणना नहीं हुई, जबकि जाति जनगणना से देश के विभाजन का न तो कोई कभी खतरा था और न ही कोई खतरा है।

यह कहना भी गलत होगा कि जाति के आधार पर गणना होती ही नहीं। अनुसूचित जातियों और जनजातियो के लोगों की जातियों की गणना होती है। अनुसूचित जाति के लोग कितने हैं, इसका पता चलता है और इसका पता भी चलता है कि उनमें किन जातियों की कितनी संख्या है। यानी जाति जनगणना के दायरे में देश की आबादी का करीब 25 फीसदी पहले से ही है, लेकिन 75 फीसदी आबादी की जनगणना में उनके जाति आंकड़े एकत्र नहीं किए जाते हैं। मंडल आयोग लागू किए जाने के बाद इसकी मांग उठ रही है। सुप्रीम कोर्ट ने मंडल मुकदमे में फैसला देते हुए कहा था कि ओबीसी में जो जातियां उन्नति कर जायें, उन्हें ओबीसी लिस्ट से बाहर कर दिया और यदि यह देखा जाये कि ओबीसी लिस्ट से बाहर की कोई जाति पिछड़ी हुई है, तो उसे ओबीसी लिस्ट में शामिल कर दिया जाय। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक सांगठनिक आधार तैयार करने का आदेश दिया था। वह सांगठनिक आधार तो तैयार हो गया, लेकिन किसी जाति को लिस्ट से बाहर करने के लिए और किसी बाहर की जाति को लिस्ट के अंदर करने के लिए जो आवश्यक आंकड़े चाहिए, उसके लिए जाति जनगणना जरूरी है। वहीं से यह पता चलेगा कि कौन सी जाति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी नहीं रही और उसने सरकारी नौकरियों में उचित हिस्सा प्राप्त कर लिया है। किस जाति ने उचित हिस्सा पा लिया है और किसने नहीं, यह जानने के लिए उनकी जाति की संख्या भी जाननी पड़ेगी और वह जाति जनगणना से ही संभव है।

इसलिए देवेगौड़ा सरकार ने 2001 की जनगणना में जाति के आंकड़े जुटाने की तैयारी शुरू कर दी थी, लेकिन उनकी सरकार गिर गई। जिस समय 2001 की जनगणना हुई, उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और उसने जाति जनगणना कराई ही नहीं। 2011 की जनगणना के समय यूपीए की सरकार थी। सरकार पर जाति जनगणना के लिए दबाव पड़ा और लोकसभा में सरकार ने जाति जनगणना का प्रस्ताव भी पास कर दिया, लेकिन जब जनगणना की बारी आई, तो सरकार ने अपने हाथ पीछे कर लिए और संसद के प्रस्ताव के सम्मान में खानापूति के लिए सोशिया इकनॉमिक कास्ट सेंसस का शगूफा छोड़ा। उसमें क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं। उसके बार में स्पष्ट रूप से मोदी सरकार कुछ नहीं कर रही है और जाति जनगणना कराने के पुराने निर्णय से भी पलट गई है। लेकिन अभी महाराष्ट्र विधानसभा में इसका प्रस्ताव पास हुआ है और यदि इसे कराने मे केन्द्र सरकार आगे नहीं बढ़ती है, तो बिहार विधानसभा में इसकी गूंज जरूर सुनाई देगी।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)