नये साल की चुनौतियां, लोकतंत्र और अर्थतंत्र पर मंडराते रहेंगे खतरे : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद ।

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नये साल की चुनौतियां, लोकतंत्र और अर्थतंत्र पर मंडराते रहेंगे खतरे : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद ।

भारी उथल पुथल के साथ वर्ष 2019 बीत गया और अपने पीछे अनेक अनुत्तरित सवालों को छोड़ गया है। अब देखना होगा की इन सवालों के क्या जवाब भविष्य में छिपे हुए हैं। पिछला साल इस सदी के दूसरे दशक का अंतिम साल था। लिहाजा अब हम तीसरे दशक में प्रवेश कर रहे हैं और यह दशक आजाद भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दशक साबित हो सकता है। उस दशक में क्या कुछ होने वाला है उसकी झांकी इस नये साल में ही दिखाई पड़ जाएगी।

अपने लोकतंत्र और अर्थतंत्र पर भारी संकट के साथ भारत ने नये साल में प्रवेश किया है। लोकतंत्र की संस्थाएं एक के बाद एक कमजोर हुई हैं और 2019 ने इस मामले में नये कीर्तिमान स्थापित किए हैं। मीडिया को लोकतांत्रिक व्यवस्था का चैथा खम्भा कहा जाता है। इसे लोकतंत्र का प्रहरी भी कहा जाता है, लेकिन जिस टीवी मीडिया की पहुंच जनता तक सबसे ज्यादा है, वह अब लोकतंत्र के लिए खतरे का रूप लेता दिख रहा है। लोकतंत्र में मीडिया सत्ताधारियों के सामने जनता की समस्या को उठाता है। उनको कटघरे में रखता है और उन्हें जनता के प्रति उत्तरदायी बनाने की कोशिश करता है, लेकिन इसका उलटा देखा जा रहा है।

अब मीडिया सत्ताधारियों की ओर से जनता से सवाल करता है और उन्हें कटघरे में खड़ा कर रहा है। पिछले दिनों नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ हो रहे आंदोलनों के दौरान टीवी मीडिया के रिपोर्टर आंदोलनकारियों से सीएए और एनआरसी के फुल फाॅर्म पूछकर जनता को ही मूर्ख, बेवकूफ और अनपढ़ साबित करने में लगे हुए थे। वे भूल गए कि उनका काम जनता को शिक्षित करना है और राजसत्ता और उनसे खुद जुड़ी हुई जानकारियां उपलब्ध कराना है, न कि उनसे सवाल करना। जिनसे सवाल नहीं करना चाहिए, उनसे वे सवाल करते हैं और जिनसे सवाल करना चाहिए, उनके सामने चुप रहते हैं।

निश्चय ही मीडिया के इतिहास का काला अध्याय चल रहा है और आने वाले दिनों में इसमें बदलाव की कोई संभावना नहीं दिख रही है। इघर मीडिया पर हमले भी तेज हो गए हैं। पिछले दिनों आंदोलनकारियों ने उनपर अनेक स्थानों पर हमले किए। अब स्थिति यह हो गई है कि टीवी मीडिया अपने रिपोर्टर पर हो रहे हमलों को भी ब्लैकआउट करने लग गया है। आज टीवी मीडिया अपनी विश्वसनीयता खो चुका है और इसके साथ ही जनता का सम्मान भी।

मीडिया के साथ साथ न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े किए जाने लगे हैं। सवाल खड़े करने वाले सिर्फ आमलोग ही नहीं हैं, बल्कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज रह चुके लोग भी सवाल उठा रहे हैं। यह लोकतंत्र के लिए बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हालांकि अभी लोग संदेह ही कर रहे हैं। साल 2020 यह तय करेगा कि यह संदेह खारिज हो जाता है या संदेह यकीन में बदल जाता है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह बहुत मायने रखने वाली घटना होगी।

2019 में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सबसे बड़ी सफलता हासिल की और राज्यसभा में भी उसके सांसदों की संख्या काफी हो चुकी है। इसके कारण कानून बनाने की उसकी ताकत बहुत बढ़ गई है। हालांकि यह भी सच है कि अनेक राज्यों की उसकी सरकारें अपदस्थ हो चुकी हैं और राज्यसभा में अगले साल उसकी ताकत बढ़ने की संभावना भी कम हो गई है, क्योंकि राज्यों के विधायक ही राज्यसभा के सांसदों के चुनकर संसद में भेजते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा में प्रचंड बहुमत होने के कारण राज्यसभा में उसकी सीटें घटने भी नहीं जा रही हैं।

हमारे लोकतंत्र की एक खासियत यह भी थी कि अपार सत्ता में होने के बावजूद बड़े मसलों पर सर्वदलीय बैठक बुलाई जाती थी और उन मसलों को संसद में लाने के पहले उनपर आम राय बनाने की कोशिश की जाती थी। लेकिन वह परंपरा अब समाप्त हो गई है। अब सबकुछ अकस्मात होता है और सत्तारूढ़ दल ने मान लिया है कि उन्हें बहुमत मिलने का मतलब है कि वह जो भी चाहें कर सकते हैं। यह एक अलोकतांत्रिक प्रवृति है, जिसके कारण टकराव तेज होते हैं, लेकिन सच यह भी है कि अब सत्तारूढ़ दल जानबूझकर टकराव की स्थिति पैदा करता है। साल 2020 इस तरह के टकरावों का साल होगा।

लोकसभा चुनाव में जीत के बाद हुए तीन विधानसभा के चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा है। दो राज्य तो उसके हाथ से पूरी तरह निकल गए और हरियाणा में उसे दुष्यंत चैटाला की पार्टी के साथ सत्ता का बंटवारा करना पड़ा है। इन पराजयों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी अपने एजेंडे को पूरी आक्रामकता के साथ् पूरा करने में लगी हुई है। 2020 के फरवरी महीने में दिल्ली विधानसभा का चुनाव होगा। साल के अंत में बिहार विधानसभा का चुनाव होगा। इनके नतीजे भी यह तय करेंगे कि भारतीय जनता पार्टी की आक्रामकता कौन सा रूप अख्तियार करती है। दिल्ली में तो भारतीय जनता पार्टी के सामने केजरीवाल के रूप में एक बड़ी चुनौती खड़ी है, लेकिन बिहार में प्रतिद्वंद्वी कमजोर है, लेकिन सहयोगी नीतीश कुमार की राजनीति भाजपा की परेशानी का सबब 2020 में बनती रहेगी।

लोकतंत्र के साथ साथ अर्थतंत्र की हालत भी बहुत खराब है और सबसे खराब बात यह है कि सरकार को यह पता ही नहीं है कि आर्थिक चुनौतियों का सामना वह कैसे करे। बाजार में मांग की स्थिति बहुत कमजोर है। इसके कारण उद्योगों में मंदी आई हुई। सरकार मंदी को दूर करने के लिए उद्योगों को राहत दे रही है, लेकिन उससे मांग पक्ष मजबूत नहीं हो पा रहा है। मांग पक्ष को मजबूत करने के लिए वह राजकोषीय नीतियों पर कम और मौद्रिक नीतियों पर ज्यादा निर्भर हो रही है। पर उससे भी लाभ नहीं हो पा रहा है, क्योंकि देश की वित्तीय व्यवस्था भी बदहाल स्थिति में है। मुद्रा नीति के कारण पहले से ही फटेहाल बैंक और फटेहाली की ओर धकेले जा रहे हैं और वित्त व्यवस्था को पटरी पर कैसे लाया जाय, इसके बारे में सरकार को कुछ सूझ नहीं रहा है। बदहाल वित्तीय व्यवस्था अर्थतंत्र के लिए साल पर खतरे पैदा करती रहेगी।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)