झारखंड में वैश्य समुदाय की उपेक्षा से बीजेपी की करारी हार संभव : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

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झारखंड में वैश्य समुदाय की उपेक्षा से बीजेपी की करारी हार संभव : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

भारतीय जनता पार्टी की चुनावी मजबूती के तीन कारण हैं। पहला कारण उसके विरोधियों का कमजोर होना और लोगों के बीच उनकी विश्वसनीयता लगभग नगण्य होना है। दूसरा कारण देश की जातिवादी राजनीति में भाजपा का जाति समीकरण मजबूत होना। नरेन्द्र मोदी के कारण भाजपा ने एक अभेद्य जाति समीकरण बना रखा है, जिसका कोई तोड़ उनके विरोधियों के पास अभी नहीं है। भाजपा की जीत का तीसरा कारण मुस्लिम फैक्टर है। मुस्लिम विरोधी भावना भड़का कर भाजपा हिन्दुओं का वोट लेती है और अपने विरोधियों पर भारी पड़ जाती है।

लेकिन पिछले दिनों हुए दो राज्यों की विधानसभाओं के आमचुनाव और अनेक क्षेत्रों में हुए उपचुनावों के नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है कि अब मुस्लिम फैक्टर भाजपा को जीत दिलाने में कमजोर पड़ रहा है। पाकिस्तान और कश्मीर को मुद्दा बनाना भाजपा के मुस्लिम फैक्टर की राजनीति का ही हिस्सा है। इन चुनावों के पहले इस फैक्टर को भुनाने की हर संभव कोशिश हुई। लखनऊ में कमलेश तिवारी की हत्या ने उसकी इस कोशिश में उसकी बड़ी सहायता की और मीडिया का इस्तेमाल कर उस घटना से अच्छी चुनावी फसल काटने में भाजपा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी।

इन सबके बावजूद हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। हरियाणा में उसने 75 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा हुआ था और जीत हुई केवल 40 सीटों पर। जोड़तोड़ के द्वारा उसने वहां सरकार तो बना ली है, लेकिन अब उसे अपने धुर विरोधी दुष्यंत चैटाला के साथ सत्ता की भागीदारी करनी पड़ रही है। महाराष्ट्र में वह 145 के आसपास अपने बूते पहुंचना चाहती थी, ताकि शिवसेना पर उसकी निर्भरता समाप्त हो और उसके बिना ही उसकी सरकार बन जाए। लेकिन वहां उसकी सीटें 105 तक सिमट गईं, जबकि 2014 के चुनाव में उसे 122 सीटें मिली थीं। अब वहां ही त्रिशंकु विधानसभा में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के विधायकों की सम्मिलित संख्या 154 है, जो यदि आपस में मिल जाएं, तो भारत के सबसे समृद्ध प्रदेश की सत्ता से बीजेपी बाहर हो सकती है।

भाजपा के खराब प्रदर्शन से अब यह स्पष्ट है कि मुस्लिम विरोधी भावना फैलाकर चुनाव जीतने की संभावना अब कमजोर होती जा रही है। इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि केन्द्रीय स्तर पर कमजोर होने के बावजूद प्रदेश स्तरों पर कांग्रेस अभी भी एक संभावना बनी हुई है। महाराष्ट्र में तो कांग्रेस ने मैदान ही छोड़ दिया था। राहुल गांधी ने भी नाममात्र की सभाएं की थीं। उसके उम्मीदवार अपने ही दम पर चुनाव लड़ रहे थे। हां, शरद पवार ने अपनी पूरी ताकत लगा रखी थी। कांग्रेस की खराब तैयारी और कमजोर अभियान के बावजूद उसे 44 सीटें मिलीं, जो पिछले 2014 में मिली 42 सीटों से ज्यादा है।

अब कुल मिलाकर भाजपा समाज के जाति अंतर्विरोध पर अपनी जीत के लिए निर्भर होती दिखाई पड़ रही है। यह जाति अंतर्विरोध जहां जितना ज्यादा तीखा है, भाजपा वहां जीत जाती है। उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में यह देखा गया, जहां भारतीय जनता पार्टी को 11 सीटों मे से 7 पर जीत हासिल हुई और एक उसके सहयोगी अपना दल के हाथ लगा।

इन चुनावों के नतीजों के बाद झारखंड में विधानसभा का चुनाव होगा। वहां भारतीय जनता पार्टी अभी सत्ता में है। उसे पिछले विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त हुआ था। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उसने सत्ता पाई थी और फिर दलबदल करवा कर अपना बहुमत स्थापित कर लिया। पिछले लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन अच्छा रहा और 14 में से 13 सीटों पर जीत हासिल हो गई। लेकिन उस समय सारे फैक्टर भाजपा के पक्ष में थे। अब मुस्लिम फैक्टर कमजोर पड़ गए हैं और झारखंड में उसे मजबूत विपक्ष का सामना भी करना पड़ रहा है। हेमंत सोरेन के नेतृत्व में वहां की सभी विपक्षी पार्टियां एकताबद्ध हो रही हैं। वैसी हालत में जाति अंतर्विरोध की भाजपा को जीत दिला सकता है।

लेकिन यह फैक्टर भी उसके लिए काम करता दिखाई नहीं पड़ रहा है। झारखंड में 26 फीसदी आदिवासी, 12 फीसदी दलित और 14 फीसदी मुस्लिम हैं। यह कुल आबादी का 52 फीसदी है, जो आम तौर पर भाजपा विरोधी है। इनमें विभाजन और शेष 48 फीसदी के बड़े भाग के समर्थन के कारण भाजपा वहां जीतती है। लेकिन शेष 48 फीसदी में आधा से ज्यादा यानी कुल आबादी का 30 फीसदी वैश्य समुदाय है, जो इस बार भाजपा से नाराज दिख रहा है। इसका कारण है कि वहां के मुख्यमंत्री रघुबर दास इसी समुदाय से आते हैं, लेकिन उन्होंने इस समुदाय के लोगों की अपने कार्यकाल में घारे उपेक्षा की। इसके कारण वे मुख्यमंत्री से नाराज हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा के पक्ष में एकतरफा मतदान किया, क्योंकि नरेन्द्र मोदी भी इसी समुदाय से आते हैं। उस समय मुस्लिम फैक्टर भी काम कर रहा था, जिसके कारण आदिवासी और दलितों के वोट भी भाजपा को मिले थे। लेकिन इस बार मुस्लिम फैक्टर कमजोर हो जाने के कारण वैश्य समुदाय और कथित अगड़ी जातियों के वोट ही भाजपा को जीत दिला सकते हैं। ओबीसी की किसान जातियों पर भाजपा की पकड़ पहले से ही कमजोर है।

वैसी स्थिति में यदि वैश्य समुदाय का गुस्सा बरकरार रहा, तो इसका भारी खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ सकता है। वहां तथाकथित अगड़ी जातियों के वोट कम से कम 5 फीसदी और ज्यादा से ज्यादा 10 फीसदी हैं। वे भारी संख्या में मतदान भी नहीं करते। जहां उनकी जाति के उम्मीदवार नहीं होते, वहां उनकी महिलाएं और बड़े बुजुर्ग तो वोट देने ही नहीं जाते। इसलिए कुल दारोमदार वैश्य समुदाय के लोगों पर ही टिका हुआ है। और यह समुदाय रघुबर सरकार में अपनी उपेक्षा के कारण या तो भाजपा विरोधी हो चुका है या उदासीन हो गया है। उनकी उदासीनता और विरोध आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को करारा झटका दे सकता है और उसे ऐसी हार मिल सकती है, जिसकी उम्मीद भाजपा तो क्या उसके विरोधी दल भी अभी नहीं लगा रहे होंगे।

नोट - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं)