आपातकाल भारत की असली प्रेत-बाधा नहीं है : वरिष्ठ पत्रकार पंकज शर्मा।

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आपातकाल भारत की असली प्रेत-बाधा नहीं है : वरिष्ठ पत्रकार पंकज शर्मा।

आपातकाल की 43वीं सालगिरह के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी, उनकी आंख के इशारे पर अपने हाथ खड़े कर देने वाले मंत्रियों और अमित शाह की पूरी भारतीय जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को हिटलर घोषित कर दिया। चार साल से हिटलर से हो रही अपनी तुलना का यह प्रतिकार करते वक़्त नरेंद्र भाई को इतना भी याद नहीं रहा कि तात्कालिक परिस्थितियों के चलते जिन इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया था, ज़्यादतियों की बातें सामने आने के बाद विह्वल हो कर उन्हीं इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाया भी था। भाजपा को आज यह भूलने की सहूलियत है कि संजय गांधी तो संजय गांधी, इंदिरा जी के दूसरे तमाम नजदीकी भी आपातकाल हटाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन बिना किसी के दबाव में आए उन्होंने आपातकाल हटाने का ऐलान कर दिया। 

इसलिए मैं मानता हूं कि अगर 25 जून 1975 को आपातकाल लगाना इंदिरा जी की ‘ऐतिहासिक भूल’ थी तो 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाना इंदिरा जी की ‘ऐतिहासिक पुण्याई’ भी थी। इंदिरा जी की ऐतिहासिक भूल के एहसास-बोझ से कांग्रेस को बगलें झांकने की ज़रूरत नहीं है। आपातकाल की शव-समीक्षा चार दशक से चल रही है। कांग्रेस एक बार नहीं, बार-बार यह ग़लती मान चुकी है। मगर आपातकाल के दिनों में गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर खुद को जेल से रिहा कर देने की गुहार करने वालों की दत्तक-ज़मात मौक़ा मिलते ही आज भी इस ‘भूल’ के लिए कांग्रेस पर पिल पड़ती है और ज़्यादातर कांग्रेसी अपने चेहरे पर रूमाल रखने लगते हैं।

मुझे नहीं लगता कि आपातकाल कांग्रेस के लिए शर्म से डूब मरने का प्रसंग है। जब आपातकाल लगा तो मैं विक्रम विश्वविद्यालय में स्नातक का छात्र था। हिंदी के महान कवियों में से एक शिवमंगल सिंह सुमन हमारे कुलपति थे। आपातकाल में काॅलेज और विश्वविद्यालयों के छात्र संघ चुनाव मुल्तवी कर दिए गए थे। कुलपति को पदाधिकारियों के मनोनयन का अधिकार दे दिया गया। सुमन जी ने मुझे विक्रम विश्वविद्यालय के छात्र संघ का सचिव मनोनीत कर दिया और मैं ताल ठोक कर कह सकता हूं कि छात्र संघ की गतिविधियों ने 

आपातकाल के दौर में जैसा रचनात्मक मोड़ लिया, उसकी कल्पना पहले कभी की ही नहीं जा सकती थी। पहली बार सारे इम्तहान तब ठीक समय पर हुए। पहली बार विश्वविद्यालय परिसर तब साइकिल की चैनों से बनी बेल्टों और रामपुरियों से मुक्त हो कर कालिदास समारोह और युवा महोत्सव का सचमुच आनंद लेने लगा।

इसलिए, बावजूद इसके कि आपातकाल में हुई चंद ज़्यादतियों को किसी भी लिहाज़ से सही नहीं ठहराया जा सकता, कांग्रेस को आपातकाल की भूल के अवसाद से बाहर आने की ज़रूरत है। कम-से-कम उन्हें तो इस भूल का सालाना-ज़िक्र कर के कांग्रेस को नीचा दिखाने का कोई हक़ नहीं है, जिनके दामन से गुजरात के दंगों का खून लाख निचोड़ने पर भी नहीं निचुड़ रहा। सोमनाथ से चले जिस रथ के पहियों पर जमे रक्त के थक्के आज भी भारत की प्रेत-बाधा बने हुए हैं, उस रथ-यात्रा का प्रबंधन किस के हाथ में था? जिन्हें अपने किए किसी भी धत-कर्म पर कोई शर्म नहीं, उनकी कही बातों पर कांग्रेस को इतना भी क्या पानी-पानी होना कि बोलती बंद हो जाए? कोई नहीं कहता कि आपातकाल मंे अगर कुछ ग़लतियां हुईं तो कांग्रेस बेशर्मी से उनका बचाव करे। मगर उन घरेलू और वैश्विक हालात का बखान करने से कांग्रेस को कौन रोकता है, जिनके चलते इंदिरा जी को आपातकाल लगाना पड़ा था! 

जो कहते हैं कि इंदिरा जी ने महज अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपातकाल लगा दिया था, वे उस दौर की गुत्थियों का अति-सरलीकरण करते हैं। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि जब बाकी लोग देश को आपातकाल की याद दिला रहे हों, कांग्रेस देश को ज़ोर-ज़ोर से याद दिलाए कि आपातकाल लगा क्यों था? यह साबित करने के लिए हज़ारों पन्नों के दस्तावेज़ मौजूद हैं कि वे क्या हालात थे, जिन्होंने देश को आपातकाल की तरफ़ ठेला। जिन्होंने बिना किसी बाहरी-भीतरी खतरे के पिछले चार साल से भारत की हर संवैधानिक व्यवस्था को बंधक बना रखा है, क्या वे हमें हिटलर के मायने बताएंगे?

ऐसे भी पचासों दस्तावेज़ी प्रमाण मौजूद हैं, जो बताते हैं कि आपातकाल में घटी बहुत-सी घटनाओं की जानकारी तब इंदिरा जी तक नहीं पहुंचने दी जाती थी और जब उन्हें इन बातों की भनक मिलने लगी तो वे कितनी विचलित रहने लगी थीं। उन दिनों दार्शनिक जिड्डू कृष्णमूर्ति से हुई उनकी मुलाक़ातों की तफ़सील जिन्हें मालूम है, वे आपको बताएंगे कि इंदिरा जी की विह्वलता का स्तर क्या था, कैसे उन्होंने तमाम दबावों को नकार कर आपातकाल हटाने का फ़ैसला किया और कैसे उन्होंने गुप्तचर ब्यूरो की इस सूचना के बावजूद आम-चुनाव कराने का ऐलान कर दिया कि कांग्रेस बुरी तरह हार जाएगी। आज एक-एक चुनाव जीतने के लिए लोकतंत्र की तमाम मर्यादाओं को सरेआम खूंटी पर लटका देने वाले आपातकाल की हायतौबा तो मचाते हैं, यह ज़िक्र क्यों नहीं करते कि इंदिरा जी ने आपातकाल हटाने और चुनाव करा कर लोकतंत्र-बहाली का ऐतिहासिक क़दम भी उठाया था?

मैं तो कहता हूं कि कांग्रेस को हर साल 18 जनवरी का वह दिन ज़ोर-शोर से मनाना चाहिए, जिस दिन 1977 में इंदिरा जी ने सब को हक्काबक्का करते हुए ऐलान किया था कि वे मार्च में आम-चुनाव करा रही हैं। आपातकाल तो उसके बाद भी क़रीब दो महीने क़ायम रहा था। आपातकाल लगाना अगर ग़लती थी तो इंदिरा जी और कांग्रेस को उसकी बहुत सज़ा मिल चुकी है। लेकिन क्या आपातकाल हटाना और चुनाव कराना भी इंदिरा जी की ग़लती थी? अगर ऐसा नहीं है तो इस पुण्याई की प्रशंसा से हम उन्हें क्यों वंचित रखें? जिन्हें इंदिरा जी में हिटलर दिखाई दे रहे हैं, उन्हें उनके हाल पर छोड़िए। बाकी सब तो इंदिरा जी के सत्कर्मों पर इठलाने की हिचक त्यागें! राम मेरे भी आराध्य हैं, लेकिन नरेंद्र भाई की तरह मैं तो दावे से नहीं कह सकता कि हमारे आधुनिक विमानन विज्ञान का जन्मदाता पुष्पक है। सीता माता मेरे लिए भी पूजनीय हैं, लेकिन मैं नहीं मानता कि वे परखनली से जन्मी थीं। गणेश जी को मैं भी हर पूजन में सबसे पहले नमन करता हूं, लेकिन इसलिए नहीं कि हमारे आज के शल्य चिकित्सा विज्ञान की वे पौराणिक मिसाल हैं। कर्ण का पराक्रम मुझे भी अभिभूत करता है, लेकिन मैं उन्हें आज के मूल-कोशिका विज्ञान की प्राचीन उपस्थिति का सबूत कैसे मान लूं? सो, नरेंद्र भाई और उनकी मंडली का आपातकाल-आलाप भी मेरे लिए अतिरंजना के अलावा कुछ नहीं है। इस शोरगुल का कुहासा दूर करना इंदिरा जी के अनुयायियों की पहली ज़िम्मेदारी है। (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)