भाजपा का पीडीपी से संबंध विच्छेद क्या कश्मीर मसले पर मोदी अगला चुनाव लड़ेंगे? - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

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  भाजपा का पीडीपी से संबंध विच्छेद क्या कश्मीर मसले पर मोदी अगला चुनाव लड़ेंगे? - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

(नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक उपेन्द्र प्रसाद) भारतीय जनता पार्टी ने पीडीपी से अपना संबंध विच्छेद कर लिया और महबूबा मुफ्ती की सरकार का पतन हो गया। इस अलगाव से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनों पार्टियों का वह गठबंधन एक बेमेल और अवसरवादी गठबंधन था। कहने को तो भारतीय जनता पार्टी कह रही थी कि कश्मीर के भले के लिए उसने वह गठबंधन किया, लेकिन अब उसकी सत्ता लोलुपता जगजाहिर हो गई है और सत्ता में आने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार रहती है। कश्मीर में उसका वह गठबंधन भी सिर्फ और सिर्फ सत्ता के लिए ही प्रेरित था।

कोई यह सवाल कर सकता है कि यदि भाजपा सत्ता प्रेमी है, तो उसने फिर वहां सत्ता से खुद बाहर क्यों हो गई? इसका जवाब ढू्रढना कठिन नहीं है। भाजपा का यह ताजा निर्णय भी सत्ता पाने का ही खेल हो सकता है। 2019 में लोकसभा के चुनाव होने हैं और अब जो माहौल बन रहा है, वह बिल्कुल ही भाजपा के पक्ष में नहीं है। मोदी का जादू ढलता जा रहा है। अब वे पहले की तरह वोट जुगाड़ु नेता नहीं रहे, हालांकि अभी भी भाजपा में उनका कोई विकल्प नहीं है। दूसरी तरफ भाजपा विरोधी दलों में एकता होती दिखाई दे रही है।

उपरोक्त दोनों कारणों से भारतीय जनता पार्टी के सामने 2019 का चुनाव जीतना एक कठिन चुनौती है। राम मंदिर के मसले पर उसे वोट नहीं मिलता। राममंदिर आंदोलन उसे कितनी सीटें दिलवा सकता है, यह 1996 के आंकड़े से स्पष्ट है, जिसमें उसे मात्र 160 सीटे मिली थीं और 1991 के चुनाव में उसे 120 सीटें मिली थीं, जबकि इन दोनों चुनावों में राममंदिर आंदोलन अपने चरम पर था।

इसलिए कश्मीर को भाजपा आगामी चुनाव का मुद्दा बना सकती है और उस मुद्दे पर चुनाव जीतने की कोशिश कर सकती है। संविधान की धारा 370 को हटाकर जम्मू और कश्मीर को मिली स्वायत्ता को समाप्त करना भाजपा का एक पुराना राजनैतिक एजेंडा रहा है। लेकिन इसका इस्तेमाल वह लोगो का वोट पाने के लिए ही करती रही है। सत्ता में आने पर वह इसे भूल जाती है।

2014 में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। अपने सहयोगी दलों के साथ यह लगभग दो तिहाई बहुमत से सत्ता में थी, हालांकि इसके सबसे बड़े सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी के राजग से बाहर हो जाने के बाद उसके गठबंधन की सीटों की संख्या काफी घट गई है और अनेक उपचुनावों मंे मिली हार के कारण भाजपा की अपनी संख्या भी घट गई है। लेकिन सच यही है कि उसने कश्मीर को स्वायत्तता देने वाली संविधान की धारा 370 को समाप्त करने की दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है।

पीडीपी से समझौते के तहत उसने वायदा किया था कि धारा 370 के साथ छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। अब जब पीडीपी के साथ उसका संबंध समाप्त हो चुका है भाजपा की सरकार धारा 370 के मसले को जोर शोर से उठाएगी और उसे समाप्त करने की दिशा में आगे बढ़ सकती है। पर सच यह भी है कि इसे समाप्त करना उसके वश में नहीं है, लेकिन इस मसले को उठाकर वह अपनी विरोधी पार्टियों के सामने इसका विरोध करने की चुनौती खड़ी कर सकती है और भारतीय जनमानस में अपने प्रति समर्थन का भाव जुटाने का प्रयास कर सकती है।

वैसे तो अन्य कारणों से भी धारा 370 को समाप्त करना संभव नहीं है, लेकिन यदि संविधान संशोधन के द्वारा भी इसे भाजपा सरकार समाप्त नहीं कर सकती, क्योंकि इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई सांसदों का समर्थन चाहिए, जो भाजपा के पास है ही नहीं। वह लोकसभा मे भी शायद दो तिहाई समर्थन नहीं जुटा सके। लेकिन इस पर वह हंगामा तो खड़ी कर ही सकती है और हंगामे के बीच अपनी स्थिति जनता में मजबूत करने की कोशिश कर सकती है।

धारा 370 भले समाप्त न हो, लेकिन संविधान की धारा 35 ए को समाप्त कर भाजपा कश्मीर मसले पर एक बड़ी उपलब्धि प्राप्त करने का दावा कर सकती है। संविधान की यह धारा राष्ट्रपति के आदेश से संविधान में जोड़ा गया था। इसके तहत कश्मीर को नागरिकता संबंधी कानून बनाने की आजादी दी गई है। राष्ट्रपति के आदेश से जुड़े इस संवैधानिक प्रावधान को संसद का अनुमोदन कभी प्राप्त नहीं हुआ है। इसके कारण इसकी संवैधानिकता को चुनौती दी गई है और वह मामला सुप्रीम कोर्ट में है।

 

जानकारों का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट इस संवैधानिक प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर सकती है और इसे भारतीय जनता पार्टी अपनी एक उपलब्धि के रूप में जनता के सामने पेश कर सकती है। आने वाले चुनाव में धारा 35 ए को समाप्त करने के मसले पर वह लोगों से वोट मांग सकती है। इसके समाप्त होने का कश्मीर में जबर्दस्त विरोध होगा। वहां जितना विरोध होगा भारतीय जनता पार्टी को देश के अन्य इलाके में उतना ही ज्यादा फायदा होगा।

35 ए के अलावा भारतीय जनता पार्टी कश्मीर की घटनाओं का भी इस्तेमाल अपने चुनावी फायदे के लिए कर सकती है। वहां अलगाववादियों के खिलाफ सरकार जितनी कड़ाई करेगी, देश में उसकी लोकप्रियता उतनी बढ़ेगी। अलगाववादी और आतंकवादीकाबू में जा जाएं, तो भाजपा इसे अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करेगी ओर यदि वे काबू में नहीं आएं और हिंसा जारी रखे, तो फिर उनका दमन की मोदी सरकार देश के अन्य हिस्से के लोगों के सामने एक कठोर प्रशासक की छवि पेश करेगी। इस तरह कश्मीर हिंसा को लेकर चित भी मेरी और पट भी मेरी की स्थिति में भाजपा अपने आपको करना चाहेगी।

इसलिए पीडीपी के साथ भाजपा का संबंध विच्छेद कश्मीर को ध्यान में रखते हुए किया ही नहीं गया है, बल्कि आगामी लोकसभा और उसके पहले तीन राज्यों में हो वाले लोकसभा चुनावों को ध्यान मे रखते हुए किया गया है। अब देखना होगा कि इस मसले पर भाजपा विरोधी पार्टियां किस तरह की रणनीति अपनाती है। (उपेन्द्र प्रसाद  - लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीति व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्धारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है। और ये उनके निजी विचार हैं।