विधान सभा अध्यक्ष व राज्यपाल के लिये सीमा रेखा तय होनी चाहिये : प्रतिष्ठित एडवोकेट कपिल सिब्बल।

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विधान सभा अध्यक्ष व राज्यपाल के लिये सीमा रेखा तय होनी चाहिये : प्रतिष्ठित एडवोकेट कपिल सिब्बल।

विधान सभा अध्यक्ष और राज्यपाल अपने अपने अधिकारों के प्रयोग के लिये स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रपूर्वक निर्णय लेते हैं और राज्य सरकार बनाने के लिये विवेकाधिकार नीति तय कर लेते हैं। राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि किसे सरकार को बनाने के लिये आमंत्रित करें और बहुमत साबित करने के लिये प्रर्याप्त समय दें। राज्यपाल के पास यह भी विवेकाधिकार है कि वे सबसे बडी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करें या चुनाव बाद बने गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिये आमंत्रण दे। साथ हीं विधान सभा पटल पर बहुमत सिद्ध करने के लिये पर्याप्त समय दे। राज्यपाल हों या विधान सभा अध्यक्ष नियुक्त किये जाने के बाद भी वे संबंधित राजनीतिक दलों से प्रभावित और निर्देशित होते हैं। संवैधानिक पद पर बैठे ये सभी पब्लिक विश्वसनीयता का आनंद उठाते हैं। एक तरह से संवैधानिक मूल्य राजनीतिक परिणामों के अधीन है।  

संविधान के दसवीं अनुसूची का जो प्रावधान किये गये है उसका उदेश्य दल-बदल व जोड़तोड की राजनीति को रोकना है। लेकिन देखा जा रहा है कि अब इसका दुरूपयोग किया जा रहा है दोषपूर्ण विधायकों की रक्षा के लिये। सदन के अंदर जब सरकार के खिलाफ कोई मामला आता है तो ऐसे में विधान सभा अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। इसे समझने के लिये निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना जरूरी होगा।

तमिलनाडु में, संविधान की दसवी अनुसूची का इस्तेमाल किस रूप में किया गया यह जानने योग्य है। फरवरी 2017 में आयोजित फ्लोर टेस्ट पर पार्टी व्हीप का उल्लंघन करने के लिए मार्च 2017 में अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम के मौजूदा उपमुख्यमंत्री और 10 अन्य विधायकों के खिलाफ एक याचिका प्रस्तुत की गई थी। हालांकि, आज तक विधान सभा अध्यक्ष ने नोटिस जारी नहीं किया है व्हीप के उल्लंघन करने वाले विधायकों के खिलाफ। दूसरी ओर, 22 अगस्त, 2017 को, टीटीवी दीनकरन समूह ने मुख्यमंत्री के प्रति कोई भरोसा व्यक्त नहीं किया और राज्यपाल को लिखा। इधर विधान सभा अध्यक्ष ने दीनाकरन समूह के 19 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता के लिए दो दिनों के भीतर नोटिस जारी कर दिये। और तीन सप्ताह के अंदर 19 में से 18 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया। एक विधायक ने मुख्यमंत्री को समर्थन दे दिया था।

दिलचस्प बात यह है कि द्रविड़ मुनेत्र कझागम ने याचिका दायर की अगली तारीख से पहले फ्लोर टेस्ट के लिये, उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद। लेकिन याचिका दायर करने के तुरंत बाद अयोग्यता का आदेश पारित किया गया। वहीं दीनाकरण समूह के 19 विधायकों ने कई हफ्तों के बाद भी सरकार में कोई भरोसा नहीं व्यक्त किया और फ्लोर परीक्षण की मांगों के बाद राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट निर्देशित नहीं किया और अल्पसंख्यक सरकार को कार्य जारी रखने की इजाजत दी। 

देखा गया है कि सभापति संविधान की तुलना में अपनी पार्टी और सरकार के प्रति अधिक वफादार है। एक मामले में अध्यक्ष की निष्क्रियता साफ दिखी और दूसरे मामले में 18 विधायकों के अयोग्यता को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। दुर्भाग्यवश, अदालत ने इस मामले उतनी तत्परता से कार्य नहीं किया जो उम्मीद थी।

 इस मामले में अध्यक्ष ने कार्य नहीं किया था, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भरोसा करते हुए, अस्थायी रूप से अयोग्यता याचिकाओं का निर्णय लेने के लिए अध्यक्ष को परमादेश जारी करने से इनकार कर दिया। चूंकि अध्यक्ष को इस तरह के एक परमादेश जारी करने की शक्ति सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक संविधान बेंच को संदर्भित किया जाता है, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट द्धारा इस मुद्दे के समाधान का इंतजार करने का फैसला किया। इसलिए, स्पीकर, इस तरह की याचिकाओं का फैसला करने से मना कर सकते हैं। दूसरी तरफ, अदालत ने दिनकरण समूह के 18 विधायकों के अयोग्यता को चुनौती देने वाले मामले में फैसला नहीं दिया है। यदि अयोग्यता साबित हो जाती है, तो सरकार गिरने की संभावना हो जाती। 

आंध्र प्रदेश में, वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के 67 विधायकों में से 21 दोषग्रस्त हो गए, जिससे मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की स्थिति सकारात्मक हो गई है। कुछ कैबिनेट मंत्री भी दोषग्रस्त हैं। दोषग्रस्त विधायकों के खिलाफ याचिका लंबित है। उसके प्रोसीडिंग के आदेश नहीं दिये विधान सभा अध्यक्ष ने। विधानसभा अध्यक्ष ने ऐसा क्यों किया कारण साफ है। इतना ही नहीं उच्च न्यायालय ने मामलों को स्पष्ट करने की इजाजत नहीं दी है कि 3.25 लाख लंबित मामलों हैं, हर मामले को एक नए मामले के रूप में नहीं सुनाया जा सकता है। 

 

तेलंगाना – यहां तेलुगू देशम पार्टी यानी टीडीपी के 12 विधायकों ने पार्टी से अलग होकर तेलंगाना राष्ट्र समिति को समर्थन कर दिया। शुरू में 8 अलग हुए फिर 4 विधायक अलग हुए। पार्टी से अलग होने वाले विधायक को अयोग्य ठहराने की मांग की गई। लेकिन कुछ नहीं हुआ। स्पीकर  ने दोषग्रस्त विधायक के खिलाफ कार्रवाई नहीं की! विधान सभा में कांग्रेस की क्षमता 21 विधायक से घटकर 12 हो गई। इससे पहले भी ऐसा होता आया है अतीत में। स्पीकर ने पक्षपात पूर्ण कदम उठाये। 

अतीत में भी ऐसा होता रहा है। साल 2000 में समाजवादी पार्टी ने भी जादूई आकंड़े तक पहुंचने के लिये बीएसपी विधायकों को अपने पाले में करने के लिये जोड़तोड़ की नीति अपनाई। मामला अदालत में पहुंचा। जब तक सुप्रीम कोर्ट इसकी वैधता पर अपना फैसला देता तबतक विधान सभा की अवधि समाप्त हो गई। ऐसी परिस्थितियों ने खुद को अन्य अधिकार क्षेत्र में भी दोहराया है।

राज्यपाल नियुक्ति के बाद भी उस रंग से बाहर नहीं आ पाते हैं जिस में रंग में वे रंगे होते हैं। सरकार जिस पार्टी के होती है उस पार्टी के लिये वे पक्षपात करने से नहीं बच पाते। इसलिये सरकारिया आयोग और पुंछ आयोग ने राज्यपाल के लिये साफ साफ गाइड लाइन दी है कि चुनाव के बाद सरकार गठन के लिये क्या क्या कदम उठाये जाने चाहिये। और चुनाव परिणाम आने के बाद किसे मुख्यमंत्री पद के लिये आमंत्रित किया जाना चाहिये। लेकिन बार बार हम देखते हैं कि इस गाइड लाइन की राज्यपाल अवहेलना करते रहे हैं। अदालत में चुनौती देने के बाद इसमें समय लगता है और इस प्रकार राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार लोकतंत्र के साथ खिलवाड कर देते हैं। हाल हीं में कर्नाटक में क्या हुआ सभी जानते हैं। इससे पहले गोवा, मणिपुर और मेघालय के उदाहरण हमारे सामने है। वहां किस प्रकार की भूमिका अदा की राज्यपाल ने। इससे भी पहले सुप्रीम कोर्ट ने अरूणाचल प्रदेश के कदम को असंवैधानिक कदम बताया। उत्तराखंड में राज्यपाल के राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया।

राज्यपाल के विवेकाधिकार फैसले पर अदालत ने कई बार रूख साफ किया है। केंद्र सरकार के कहने पर राज्यपाल ने राज्य सरकार को अवैध तरीके से बर्खास्तगी की। इस पर शोक भी व्यक्त किया गया। एस आर बोमई बनाम संघ (1964) मामले में भी देखे तो साफ हो जायेगा। 

 बहरहाल पूरे मामले पर विचार करने की जरूरत है। 10वीं अनुसूची में भी संशोधन की जानी चाहिये। इतना ही नहीं राज्यपाल के विवेधिकार और शक्तियों पर भी विचार किया जाना चाहिये और इस मामले में संविधान संशोधन की जरूरत है। और इन सबसे ज्यादा लोकतंत्र को स्वस्थ बनाये रखने के लिये राजनीतिक सर्वसम्मति की आवश्यकता है। यह सबसे कठिन स्थिति है ।  

नोट -  लेखक कपिल सिब्बल कांग्रेस पार्टी के नेता होने के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट के प्रतिष्ठित एडवोकेट हैं और पूर्व केंद्रीय मंत्री भी है। वर्तमान में राज्य सबा सासंद हैं। 

(पहली बार   हिन्दी में ग्लोबल खबर में प्रकाशित 13 जून 2018 को)