देश की सुप्रीम व्यवस्था से छेड़छाड़ क्यों? - वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय।

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देश की सुप्रीम व्यवस्था से छेड़छाड़ क्यों? - वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय।

भारतीय संविधान के बारे में एक मान्यता यह भी है कि संविधान में जो कुछ लिखित है वह तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन कुछ अलिखित परंपराएं भी हैं जिनको पूरा महत्व दिया जाता है। आज भारत में यह बात साफ हो गई है कि पिछले 70 साल में किसी ने संविधान के साथ छेड़छाड़ करने का प्रयास नहीं किया। लेकिन पिछले चार साल में यह प्रयास लगातार हो रहा है। इससे और भी कई मुद्दे सामने आ रहे हैं। पिछले 70 साल में केंद्र में भी और राज्यों में भी अलग-अलग पार्टियों की सरकारें बनीं जिनमें भाजपा भी शामिल थी, वामपंथी भी थे, पिछड़े और अगड़े कहलाने वाले लोग भी थे लेकिन किसी ने इस तरह का कोई प्रयास नहीं किया जिससे संविधान की मर्यादा को ठेस पहुंचे। सिर्फ मोदी सरकार में ऐसे प्रयास किए गए और एक नहीं, लगातार इतने प्रयास हुए जिनसे लगता है कि ये सारे प्रयास किसी मकसद से जुड़े हुए हैं। वाजपेयी की सरकार भी भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार थी लेकिन उसमें भी ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसके बारे में यह कहा जाए कि संविधान के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश हुई है।

मोदी सरकार में यह बात साफ तौर पर खुलकर सामने आ गई कि यह सरकार पूरी व्यवस्था को बदलना चाहती है। विपक्षी दल अगर यह आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार जानबूझकर संविधान के साथ छेड़छाड़ कर रही है तो यह आरोप गलत नहीं है। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट के मामले में जो कुछ हुआ उसके बारे में विचार करना जरूरी है। पहली बात तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए पहले से ही एक कॉलेजियम की व्यवस्था जारी थी। सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम सदस्य इस कॉलेजियम के सदस्य हैं। उन्हें हाईकोर्ट से जजों, मुख्य न्यायाधीशों अथवा सुप्रीम कोर्ट के 10 साल से अधिक प्रैक्टिस करने वाले वकीलों में से किसी को जज चुनने का अधिकार है। संविधान के अनुसार केंद्र सरकार को सिर्फ नियुक्ति का अधिकार है। अगर जजों की योग्यता की परीक्षा सरकार को ही करनी हो तो कॉलेजियम की जरूरत क्या है। अगर याद हो तो 2014 में मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही कॉलेजियम की व्यवस्था को बदलने का प्रयास किया था। सरकार चाहती थी कि एक ऐसी व्यवस्था बनाई जाए जिसमें जजों की नियुक्ति में सरकार को भी अपनी बात कहने का अधिकार मिले।

सुप्रीम कोर्ट के साथ सरकार का यह टकराव बहुत पहले ही शुरू हो गया था। यह मामला आज फिर सामने आया है। कॉलेजियम ने सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति के लिए सरकार के पास दो नामों की सिफारिश की। एक उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस के.एम. जोसेफ तथा दूसरा सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट इंदु मल्होत्रा के नाम थे। यह सिफारिश कई महीने पहले हुई थी। सरकार ने काफी समय तक फाइल को दबाए रखा। अभी हाल में उसमें एक नाम पर मुहर लगाई। वह नाम था इंदु मल्होत्रा का और दूसरे नाम को पुन: भेज दिया कॉलेजियम के पास ताकि इसपर दोबारा विचार किया जाए। उसमें तर्क यह दिया जा रहा है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अन्य मुख्य न्यायाधीशों के साथ वरिष्ठता क्रम में 42वें स्थान पर हैं और उनसे अधिक योग्य और जज भी हैं। कॉलेजियम में इस मामले पर फिर से विचार किया गया और कुछ और जजों के नाम के साथ जस्टिस जोसेफा का नाम दोबारा से भेजा गया है। एक बार तो निर्णय टाला गया है लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश की इस टिप्पणी से थोड़ी आशा बनती है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों में एकता है।

लेकिन यहां कई सवाल भी खड़े होते हैं। पहला सवाल यह कि क्या कॉलेजियम के सामने ऐसी कोई नियमावली रखी गई है कि उसके अंतर्गत ही सुप्रीम कोर्ट के लिए जजों की नियुक्ति होगी। कोई जज वरिष्ठता क्रम में ऊपर हो या नीचे यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है। कॉलेजियम को अगर यह लगता है कि कोई जूनियर जज भी ज्यादा योग्य है तो उसे वह नियुक्ति के लिए अनुशंसित कर सकता है। इतना ही नहीं, अगर वरिष्ठता क्रम वाला मामला उठाया जाए तो सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकीलों का वरिष्ठता क्रम कैसे बनेगा और उनमे से नियुक्ति कैसे होगी। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के मामले में सरकार का ऐसा अधिकार हासिल करना चाहती है जिससे वह फिर यूपीएससी या इस तरह की अन्य संस्थाओं में भी लागू कर सके।

मान लीजिए, किसी साल यूपीएससी को आईएएस और आईपीएस सेवाओं के लिए 700 प्रत्याशी चुनकर सरकार के पास उनके नाम नियुक्त के लिए भेजने हैं तो यूपीएससी 700 नाम चुनती है और उनको मिले अंकों के आधार पर योग्यता की सूची भी बनाई जाती है। मतलब कि जितनी जरूरत है उतने ही नामों की सिफारिश। अगर सरकार यह कहना शुरू करे कि 700 की जरूरत है तो 1000 नाम चुनकर भेजिए और उनमें से 700 लोगों की नियुक्ति सरकार करेगी तो यह बात कहां तक उचित है। यूपीएससी का गठन ही इस काम के लिए हुआ है कि वह परीक्षाएं आयोजित करके उनके आधार पर योग्य प्रत्याशियों का चयन करे और अंतिम रूप से सिर्फ उतने ही प्रत्याशियों को सफल घोषित किया जाए जिनकी सरकार को जरूरत है। सरकार सिर्फ नियुक्ति करने वाली संस्था है। वह न तो किसी का नाम रोक सकती है न किसी को कम या ज्यादा योग्य बता सकती है। इस तरह से कॉलेजियम का मामला एक ऐसे पेंच में फंसा हुआ है कि यदि सरकार जोसफ की नियुक्ति रोकने में सफल हुई तो इसका अर्थ यह होगा कि अब तक की व्यवस्था को बदलने में सरकार सफल हो गई है।

सवाल यह उठता है कि अब तक की हर व्यवस्था को सरकार बदलना क्यों चाहती है। क्या सरकार को संविधान में कोई खामी नजर आती है। यह सवाल इसलिए पूछा जाता है कि सत्ता संभालते समय इस सरकार ने इसी संविधान की शपथ ली है। कारण ढूंढने पर सिर्फ इतना ही लगता है कि मोदी सरकार संविधान की व्यवस्थाओं में इस तरह तोड़-मरोड़ करने चाहती है ताकि आरएसएस के एजेंडे को लागू करने में उसे सुविधा हो। अभी तो उसे डर लगता होगा कि सरकार ने जानबूझकर व्यवस्थाओं में छेड़छाड़ करने की कोशिश की है उसका विरोध होगा लेकिन जब व्यवस्था ही बदल दी जाएगी तो विरोध का क्या आधार रह जाएगा। 2014 के लोकसभा चुनाव में और उसके तत्काल बाद हुए कुछ विधानसभा के चुनावों में भाजपा को जो सफलता मिली उसके बल पर पूरे देश की शासनप्रणाली का भगवाकरण करने का एक प्रयास किया गया। यह आरोप विपक्षी दल मोदी सरकार पर लगाते हैं।

आज वह वक्त आ गया है कि जनता स्वयं जज बनकर इस बात की जांच करे कि क्या उसे संविधान में छेड़छाड़ पसंद है। अपने संविधान में ऐसी व्यवस्था भी है कि जरूरत हो तो उसमें संशोधन किया जा सकता है, लेकिन अगर प्रयास ऐसा हो कि पूरे संविधान की दशा और दिशा दोनों बदल दी जाए तो इसके बारे में भारत की जनता को सोचना होगा। वक्त आ गया है 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता इस बात पर विचार करे कि अगर वह संविधान को सही समझती है तो उससे छेड़छाड़ करने वालों को साफ कह दे कि देश को उनकी जरूरत नहीं है। अगर जनता को लगता है कि संविधान में छेड़छाड़ होना चाहिए या पूरी व्यवस्था बदल दी जानी चाहिए तो निर्णय लेना उसके हाथ में है लेकिन एक बात साफ है कि व्यवस्थाओं को बदलने की इस मुहिम से देश को जो नुकसान हो रहा है उसे समय रहते नहीं रोका गया तो नुकसान जनता को ही भुगतना होगा।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक मामलों के जानकार है। इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी मत हैं।)