लोकतांत्रिक व्यवस्था में समाज का अपना अलग महत्व है। समाज एक अनिवार्य अंग ही नहीं, सबसे ताकतवर हिस्सा है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को संभाले रखता है। इस बात को ठीक से समझने के लिए हमें पहले समाज को ही समझना पड़ेगा। समाज की परिभाषा देते हुए प्राचीन काल में लोगों ने कहा- 'समां अजंति जनाह अस्मिन इति समाज:' अर्थात् समान उद्देश्य की पूर्ति के लिए कुछ लोग जब एक स्थान पर बसते या रहते हैं तो उनका समूह समाज कहलाता है। इससे एक बात जाहिर होती है कि एक समाज में रहने वाले जितने लोग हैं उनमें स्वभाविक रूप से कुछ मत विरोध हो सकते हैं लेकिन उनके बीच हितविरोध नहीं हो सकता है। परिभाषा के अनुसार, समाज बनता ही इसीलिए है क्योंकि उसमें रहने वाले सभी अपने साथ-साथ बाकी लोगों की भी रक्षा करना चाहते हैं। जितने लोग वहां रहते हैं उनके विचार अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन अगर उनके बीच का टकराव इतना बढ़ जाए कि वे एक-दूसरे के अस्तित्व को मिटा देना चाहें तो समाज का नष्ट होना अवश्यंभावी है।
लोकतंत्र में समाज की भूमिका इसीलिए ज्यादा है क्योंकि लोकतंत्र जिस उद्देश्य को लेकर बना है उसके मूल में ही समाज की भलाई का उद्देश्य छिपा हुआ है। भारत में आज इसे दुर्भाग्य माना जाएगा कि समाज के आपसी मतभेद अब सिर्फ विचार भेद तक सीमित नहीं रह गए हैं। समाज का कोई एक हिस्सा दूसरे हिस्से को मिटाना चाहता है। इसके लिए तरह-तरह के कारण बन जाते हैं। धर्म, संप्रदाय, जाति, भाषा, क्षेत्र ये सारी चीजें समाज में नई नहीं हैं। हर समाज में इनका अस्तित्व पहले से कायम है। लेकिन विचारभेद के बावजूद समाज इसीलिए सुदृढ़ बना रहा क्योंकि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति को सबने अपनाया। सही बात तो यह है कि अगर समाज का कोई एक वर्ग सोच ले कि वह दूसरे वर्ग को मिटा देगा तो यह मूर्खता की पराकाष्ठा कही जाएगी। इतिहास से पूछा जाए कि वह कहेगा कि बहुत सारे अत्याचारी हुए जो तलवार के बल पर किसी वर्ग को मिटाने चले थे। वह वर्ग तो नहीं मिटा, वह खुद जरूर मिट गए। भारत में जितने धर्म, संप्रदाय, जाति इत्यादि हैं उनके खत्म हो जाने की बात कल्पना भर है। कोई किसी को नहीं मिटा सकता। बल्कि मिटाने का अगर प्रयास होता है तो प्रयास करने वाला स्वयं मिट जाएगा।
आज हम ऐसे युग में पहुंच गए हैं जब पूरी दुनिया विकास की चुनौती का सामना कर रही है। भारत का स्थान विकासशील देशों में है और भारत के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। इस देश का हर आदमी इस बात को समझता है कि हमारा विकास तभी संभव है जब समाज में शाति हो और आपस में सद्भावना हो। ऐसा माहौल बने जिसमें हर कोई विकास के लिए प्रयास करे, व्यक्तिगत विकास का वही प्रयास सामाजिक विकास में बदलता है और फिर पूरे राष्ट्र की तरक्की होती है। इसके विपरीत अगर समाज में वैचारिक मतभेद बहुत गहरा हो जाता है और एक-दूसरे को खत्म करने की होड़ लगने लगती है तो अव्यवस्था फैलती है और जब अव्यवस्था फैलेगी तो वहां विकास की कल्पना करना गलत है। आज भारतीय समाज में जरूरत है विकास की और इसके लिए जरूरत है समाज के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों की। आज भी हमारे सामने दुनिया के अनेक देशों में उदाहरण मौजूद है जहां लोग आपसी कलह की वजह से बर्बाद होते जा रहे हैं।
पिछले 70 साल में भारत ने जितना प्रयास किया है उसे दुनिया जानती है और मानती है। विकास की इस सीढ़ी तक पहुंचकर अगर हमारा समाज नीचे लुढ़कने लगा तो पता नहीं फिर कहां जाकर रूकेगा। यह कोई ऐसी बात नहीं है जो लोग जानते व समझते न हों। इसके बावजूद समाज में विध्वंशकारी भावनाएं क्यों भड़कती हैं, इस बात पर गहराई से विचार किया जाए तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि ऐसे प्रतिगामी कदम भावनाएं भड़काने के लिए उठाए जाते हैं। कोई एक उदाहरण काफी है- अगर किसी पुराने नेता का नाम बदल देने या उसके विकृत कर देने या मूर्तियां तोड़ने या इस तरह की छोटी-छोटी बातों को भड़काने का प्रयास किया जाए तो वह व्यक्ति अपनी रक्षा के लिए तो आ नहीं सकता, लेकिन जिस दुर्भावना से यह काम किया गया वह दुर्भावना हमारे ही मुंह पर कालिख पोतकर चली जाएगी और हमें लाभ कुछ नहीं मिलेगा। एक उदाहरण काफी है- भीमराव अंबेडकर खुद अपने नाम के साथ पहले राम जोड़ते थे फिर बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और राम शब्द छोड़ दिया। कायदे से देखा जाए तो राम का नाम जोड़ने या छोड़ने से किसी को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। अंबेडकर ने जो काम किया देश के लिए वह विचार की चीज है। उन्होंने देश को संविधान दिया उसपर बहस हो सकती है लेकिन उनके नाम को लेकर विवाद पैदा हो या किया जाए तो उसे विवेकपूर्ण नही कहा जाएगा। गांधी जी का असली नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। उन्हें महात्मा देश के लोगों ने कहा और पूरी दुनिया आज भी उन्हें महात्मा के रूप में स्वीकार करती है। हम अगर महात्मा शब्द हटाने की जुर्रत करें तो गांधी जी अपना बचाव करने तो नहीं आएंगे लेकिन दुनिया यह जरूर समझ जाएगी कि हमारी सोच कितनी खोटी है और जब हम अपने महात्मा को खुद ही महात्मा कहने को तैयार नहीं हैं तो दुनिया क्यों कहेगी।
सवाल ज्यादा खतरनाक तब बनने लगता है जब ऐसे घटिया प्रयास सत्ता की सुरक्षा में किए जाते हैं। साफ झलकता है कि यह प्रयास इसलिए किया गया है कि समाज के एक वर्ग को ठेस लगे, उसके मन में कड़वाहट पैदा हो, विभिन्न वर्गों में संघर्ष छिड़े और उसका राजनीतिक फायदा उठाया जाए। लेकिन उसका परिणाम भी सबको मालूम है। यह ठीक वही स्थिति है जैसे कोई डायबिटीज का मरीज रसगुल्ला खा रहा है और खुश हो रहा है। कमाल की बात यह है कि समाज में भावनाएं भड़काने वाले, एक-दूसरे को लड़ाने वाले अपना काम तो करते हैं लेकिन वहां मौके पर टिकते नहीं हैं। वहां जैसे ही लड़ाई-झगड़ा शुरू होता है वे खुद भाग लेते हैं। नुकसान झेलने वाले नुकसान झेलते रहें और वो अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं।
समस्त दृश्य को यूं देखना चाहिए कि सीढ़ी बनी हुई है, चढ़ना और उतरना हमारी मर्जी पर है। हम चढ़ना चाहते हैं तो ऊपर की ओर देखेंगे, लक्ष्य सामने होगा और आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे। परेशानी होगी लेकिन एक न एक दिन सफलता मिलेगी। अगर नीचे जाना चाहते हैं तो नजर नीची होगी और हालात से समझौता करते हुए अपने को विपत्ति में डालते हुए हम लुढ़कते चले जाएंगे। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत को अगर विकास करना है तो सामाजिक सद्भाव और देश में सौहार्दपूर्ण वातावरण दोनों बनाना होगा। अशांतिपूर्ण माहौल में कभी प्रगति संभव नहीं है। यह तय करना हमारे हाथ में है कि हम ऊपर जाना चाहते हैं या नीचे रसातल में जाना चाहते हैं। विकास से हमारा संबंध सिर्फ वर्तमान तक का नहीं है। यह संबंध वर्तमान से ज्यादा भविष्य से है। देश में विकास होगा तो हमारी आगे की पीढ़ियां सुरक्षित रहेंगी। अगर विनाश का दौर शुरू हो गया तो हम खुद ही सुरक्षित नहीं रहेंगे, बाकी बात तो अलग है। आज ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जहां हमें सोचना होगा कि धर्म, संप्रदाय, जाति और भाषा के नाम पर लड़कर हम बर्बाद हो जाना चाहते हैं अथवा उस सच्चाई को समझना चाहते हैं कि ये धर्म, जाति आदि जैसे पहले से रहे हैं वो आज भी है और कल भी रहेंगे। इनके नाम पर आपस में मनमुटाव पैदा करने और समाज को तोड़ना आत्मघाती कदम साबित होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये लेखक के निजी विचार हैं।)