कैराना उपचुनाव के सबक एकजुट विपक्ष के सामने नहीं टिक सकती भाजपा : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

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कैराना उपचुनाव के सबक एकजुट विपक्ष के सामने नहीं टिक सकती भाजपा : वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद

(नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक उपेन्द्र प्रसाद) उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा सीट से भाजपा की करारी हार का संदेश स्पष्ट है और वह संदेश यह है कि यदि विपक्ष एकजुट होकर चुनाव लड़े, तो फिर भाजपा का 2019 लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में बने रहने का सवाल ही नहीं है। कर्नाटक में अल्पमत में होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी ने जिस प्रकार सरकार बनाने की कोशिश की है, उसमें उसका 2019 का इरादा भी साफ दिखाई पड़ता है। यानी अल्पमत में रहने के बावजूद वह अपनी सरकार सिर्फ इस बिना पर बनाएगी कि लोकसभा में सबसे ज्यादा सीटें जीतकर लाई है, भले ही उसे बहुमत का समर्थन हासिल हो या न हो।

 

इसलिए विपक्ष के सामने चुनौती सिर्फ यह नहीं है कि भाजपा को वह पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने से रोके, बल्कि उसकी चुनौती यह है कि वह उसे 150 से ज्यादा सीटें प्राप्त करने रोके। यदि उसके पास दो सौ सीटें भी आ गईं तो वह शपथ ग्रहण करने के बाद साम, दाम, दंड और भेद से किसी तरह अपना बहुमत हासिल कर लेगी और फिर सरकार उसी की बनी रहेगी। इसलिए यदि विपक्ष को भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है, तो उसे न केवला शिकस्त देनी होगी, बल्कि उसे ऐसी शिकस्त देनी होगी कि वह शपथ ग्रहण के बाद भी अपना बहुमत साबित नहीं कर सके।

 

कैराना के पहले गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में भी भाजपा हारी थी, लेकिन कैराना चुनाव के नतीजे उससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि गोरखपुर और फूलपुर में अपनी जीत के प्रति भाजपा आश्वस्त थी, इसलिए चुनाव जीतने के लिए उसने पूरा जोर नहीं लगाया था, लेकिन कैराना चुनाव में अपनी जीत के प्रति वह आश्वस्त नहीं थी, इसलिए उसने अपना सारा जोर यहां लगा दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मतदान के एक दिन पहले पास के ही बागपत में एक रोड के उद्घाटन के मौके पर मजमा लगाकर चुनावी भाषण कर दिया था। अपनी उपलब्धियों का उल्लेख भी कर दिया था और वायदो की भी झड़ी लगा दी थी।

 

यही नहीं, जहां विपक्षी उम्मीदवार का समर्थन ज्यादा था, वहां मतदान कराने वाली मशीनों को भी खराब कर दिया गया था, ताकि विपक्षी उम्मीदवार के समर्थक मत दिए बिना वापस चले जाएं। यह इससे साबित हो जाता है कि जिन 73 बूथों पर 30 मई को दुबारा मतदान कराए गए, वहां विपक्षी उम्मीदवार तवस्सुम हसन को एकतरफा वोट मिले। यानी भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी अधिकारियो से

मिलकर विपक्षी उम्मीदवार के वोटों को डिस्टर्ब करने की भी कोशिश की और मशीनें या तो खराब कर दिए गए या उनके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की गई।

 

कहने का मतलब यह है कि भाजपा ने कैराना चुनाव जीतने के लिए सही या गलत सभी तरीकों को आजमाया। कैराना में भाजपा की हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश का हिस्सा है, जहां 2013 में भयावह सांप्रदायिक दंगे हुए थे। कैराना खुद उन दंगों का गवाह बना था। इस लोकसभा क्षेत्र मे मुस्लिम आबादी का प्रतिशत 30 है। जाहिर है, 70 फीसदी आबादी हिन्दुओं की है और वे भी मुसलमानों की तरह सांप्रदायिक दंगे के शिकार होते हैं और उनका गुस्सा मुसलमानों के खिलाफ होता है। वैसी हालत में उनमें मुस्लिम विरोधी भावना पैदा करना आसान था और भारतीय जनता पार्टी ने ऐसा करने की पूरी कोशिश की, लेकिन विपक्ष के एकजुट होने के कारण वह हिन्दू सांप्रदायिकता की लहर पैदा नहीं कर सकी, जबकि विपक्षी उम्मीदवार मुस्लिम ही थी।

 

जाहिर है, इस जीत का एक संदेश यह भी है कि यदि विपक्ष एकजुट रहे, तो वह सांप्रदायिक माहौल को बनने से भी रोक सकता है। भारतीय जनता पार्टी खासकर उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक माहौल बनाकर जीतने की रणनीति पहले भी बनाती रही है और आगे भी बनाने की कोशिश करेगी। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री भी इसीलिए बनाया गया है और उन्हें वह देश के सामने हिन्दुत्व के पोस्टर बॉय के रूप में पेश करती है। अलीगढ़ कैराना से ज्यादा दूर नहीं है। दोनो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही हैं।

 

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर को भी यहां भाजपा की ओर से मुद्दा बनाया गया और जाट राज महेन्द्र प्रताप सिंह, जिन्होंने विश्वविद्यालय बनाने के लिए जमीन दी थी की उपेक्षा का भी मसला उठाया। भाजपा के कुछ नेताओं ने तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम बदलकर महेन्द्र प्रताप सिह विश्वविद्यालय कर देने की मांग भी की, ताकि जाट मतदाताओं को मुस्लिम प्रत्याशी के खिलाफ भड़काया जा सके। कितने जाट भड़के यह तो पता नहीं, लेकिन कुल मिलाकर भाजपा की भारी पराजय हो गई और हिन्दु भावनाओं को भड़काकर जीतने का उसका इरादा कामयाब नहीं हो सका।

 

कैराना के अलावा पश्चिम उत्तर प्रदेश के नूरपुर विघानसभा क्षेत्र में भी भाजपा को हार का स्वाद चखना पड़ा। वहां समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की जीत हो गई है। यहां सबसे दिलचस्प बात यह हुई कि खुद अखिलेश यादव भी यहां अपने उम्मीदवार के लिए चुनाव प्रचार नहीं करने गए और चुनाव जीत का जिम्मा अपने कार्यकत्र्ताओं के मत्थे ही छोड़ दिया, जबकि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने वहां जाकर चुनाव रैली को संबोधित किया।

 

कैराना में कामयाबी हासिल करने के बाद अब विपक्ष को उसी पैटर्न पर एक होना होगा। यदि उत्तर प्रदेश में ही इस तरह की एकता हो गई, तो भारतीय जनता पार्टी के लिए देश की सबसे बड़ी आबादी वाले इस प्रदेश की एक एक सीट जीतना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इस तरह की एकता बहुत आसान भी नहीं है, क्योंकि राजनैतिक नेताओं के अपने अपने निजी स्वार्थ इसके आड़े जाते हैं। मायावती का उपचुनाव में समर्थन लेना आसान है, क्योंकि चुनाव न लड़ना उनकी पार्टी की रणनीति है। लेकिन लोकसभा के आमचुनाव में वह अपनी पार्टी के लिए ज्यादा से ज्यादा सीटें मांगने लगेंगी, जिसे पूरा करना दूसरे दलों को आसान नहीं होगा। जाहिर है, एकता तभी होगी, जब ये नेता कुछ त्याग करने को तैयार हों। (उपेन्द्र प्रसाद  - लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीति व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्धारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है। और ये उनके निजी विचार हैं।