कर्नाटक राज्यपाल प्रसंग : सर्वोच्च न्यायालय को अब राजनीतिक-प्लोटिंग से बचाने के लिये खुद कदम उठाने चाहिये – प्रसिद्ध एडवोकेट कपिल सिब्बल।

1
कर्नाटक राज्यपाल प्रसंग : सर्वोच्च न्यायालय को अब राजनीतिक-प्लोटिंग से बचाने के लिये खुद कदम उठाने चाहिये – प्रसिद्ध एडवोकेट कपिल सिब्बल।

सवाल है कि क्या राज्यपाल नियमानुसार कार्य कर रहे हैं?  देश को एक असहनीय विचार व विज़न से बचाने की जरूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं था कि चुनाव के बाद कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन के पास बहुमत था। बीजेपी के पास सिर्फ 104 सीटें थी लेकिन बीजेपी ने सरकार बनाने के लिये संदिग्ध वातावरण तैयार किया। ऐसी परिस्थितियों में, संवैधानिक अधिकारियों के लिए कार्यालय की शपथ के अनुसार कार्य करना और संविधान की रक्षा करना महत्वपूर्ण है। लेकिन उनका रूख एकतरफा पक्षपातपूर्ण रहा।    

 राज्यपाल किस प्रकार से अपने संवैधानिक अधिकारों और मानदंडो का उल्लंघन कर फैसले कर रहे हैं इसकी समीक्षा करते हैं – प्रथम, राज्यपाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के सहयोगी के रूप में अर्थात उनके लिये कार्यरत हैं। चाहे गोवा का मामला हो या मणिपुर का या मेघालय का उससे पहले अरूणाचल प्रदेश और उत्तराखंड का। सभी जगह राज्यपाल की भूमिका संदिग्ध रही। वे दिल्ली के लिये पाइड-पाइपर की धुन पर खेल रहे हैं। दूसरा, शायद यह और अधिक गंभीर मामला है। जो आम आदमी को सीधे प्रभावित करता है। लोग चुनावी राजनीति के प्रकृति को समझते हैं। लेकिन जब वे देखते हैं कि संवैधानिक संस्थान गलत निर्णय ले रहा है। उनके मूल्य लगातार गिर रहे हैं ऐसे में लोकतंत्र में विश्वास की कमी दिखने लगे तो निश्चित ही यह चिंताजनक स्थिति है।  

 तीसरा, राज्यपाल ने 17 मई को बी एस येदियुरप्पा को शपथ ग्रहण करने का फैसला किया और बाद में विधानसभा के पटल पर अपना बहुमत साबित करने का निर्देश दिया। यह फैसला देर शाम को लिया गया था। राज्यपाल को पता था कि कांग्रेस-जेडी (एस) गठबंधन उनके आदेश को चुनौती देने जरूर देंगे इस लिये अगले दिन सुबह सुबह 9 बजे का समय रखा गया शपथ समारोह का। ताकि इस अवधि में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई न हो सके। सौभाग्य से, भारत के मुख्य न्यायाधीश सुनवाई के प्रति तत्परता दिखाई जिससे कांग्रेस और जेडीएस गठबंधन को कुछ आशा जगी और लगा कि यह लड़ाई अभी भी जीती जा सकती है।

 अदालत ने राज्यपाल के फैसले के खिलाफ बीजेपी विधायक दल के नेता येदीयुरप्पा को अगले दिन बहुमत साबित करने का आदेश दिया जबकि राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट के लिये 15 दिनों का समय दिया था। एक तरह से राज्यपाल ने बीजेपी को खरीद फरोख्त के लिये समय दिया था। हालांकि अदालत इस बात को लेकर जागरूक थी कि कांग्रेस और जेडीएस के मिल जाने के बाद उनके पास विधायकों की संख्या 116 और निर्दलीय को मिलाकर उनकी संख्या 117 है। 

राज्यपाल ने येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद लिये आमंत्रित किया जो कि संख्या पर आधारित नहीं था। तब यह अदालत को भी लगा होगा कि जब येदियुरप्पा के अपेक्षा कांग्रेस-जेडीयू गठबंधन के पास बहुमत है तो येदियुरप्पा को क्यो आमंत्रित किया गया। येदियुरप्पा ने राज्यपाल के सामने सरकार बनाने के लिये जो पत्र दिया था वह अदालत के सामने नहीं था। कोई रिकॉर्ड नहीं था इससे यह साफ होता है कि येदियुरप्पा के साथ कांग्रेस और जेडीएस का कोई विधायक नहीं था। इस स्थिति में राज्यपाल को कांग्रेस-जेडीएस के बदले येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित नहीं किया जाना चाहिये था। जेडीएस लीडर कुमारस्वामी को आमंत्रित किया जाना चाहिये था क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने 15 मई को ही जेडीएस को समर्थन देने के लिये पत्र लिख दिया था। 

 15 मई की शाम को ही कांग्रेस और जेडीएस के सभी विधायकों के हस्ताक्षर के साथ सूची राज्यपाल को भेज दिया गया था जेडीएस नेता कुमारस्वामी के नेतृत्व में। सिर्फ दो विधायकों के हस्ताक्षर नहीं थे। यह सब कुछ रिकॉर्ड पर है। इन तथ्यों के बावजूद ने अदालत ने गर्वनर के आदेश को रद्द नहीं किया और कहा कि उनकी अनुपस्थिति में ऐसा की आदेश पारित नहीं किया जा सकता। क्या ऐसा आदेश पारित किया जा सकता था या नहीं यह अब एक इतिहास है। 

 येदियुरप्पा को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित करना राज्यपाल द्धारा व्यवस्था से जुड़े कुछ गंभीर सवाल थे। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री के बयान को भी देखा जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि सरकार तो हमारी ही बनेगी। यह एक साफ संकेत था कि राज्यपाल उनकी ओर है। किसी भी कीमत पर कर्नाटक में बीजेपी को सरकार बनाना था। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के साफ संदेश थे। बेल्लारी भाईयों ने कथित तौर पर कांग्रेस-जेडीएस के कुछ विधायकों को बंधक बना रखे थे। यह सब कुछ येदिरप्पा के बहुमत सिद्ध करने के लिये किया जा रहा था। 

अगर बीजेपी को बहुमत मिलता तो क्या होता?  एक सरकार जो गलत तरीके से सत्ता में आयी और कानून का चोल पहनी हुई होती। असंवैधानिक होने के लिए इस तरह के गठन को आयोजित करने वाले न्यायिक फैसले को प्रस्तुत करना असंभव होगा। भ्रष्टाचार, अवैधता और अप्रासंगिकता, सभी एक साथ रखे, विजय प्राप्त कर लेते और अदालत सरकार को रद्द करने में सक्षम नहीं होती। बहरहाल यह कांग्रेस और जेडी (एस) को श्रेय जाता है कि वे अपने को एक साथ बनाये रखे।   

 सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले पर सावधानी पूर्वक इस मामले में नजर बनाये रखी। और 19 मई को फ्लोर टेस्टिंग का आदेश देकर वह सारी राजनीतिक खरीद-फरोख्त के मामले को खत्म कर दिया। एसेंबली की सीधे प्रासरण ने ट्रस्ट वोट प्रकरण को पारदर्शी बना दिया। 

 इस पूरे प्रकरण से दो सबक मिले। राज्यपाल जैसी संस्थाओं राजनीतिक दलों के ढांचे से संरक्षित किया जाना चाहिये। दूसरा, ऐसी स्थितियों के लिये सुप्रीम कोर्ट को साफ निर्देश देने चाहिये। जब अगला विधान सभा चुनाव हो तो ऐसी स्थिति पैदा न हो। राजनीतिक नैतिकता के गिरावट के इस युग में एक तरह से संवैधानिक मूल्य कब्जे में है। ऐसे में अदालत को हमेशा सतर्क रहने की जरूरत है। (लेखक –कपिल सिब्बल, सुप्रीम कोर्ट के प्रतिष्ठित एडवोकेट, कांग्रेस लीडर व पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)