(नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक उपेन्द्र प्रसाद)। पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना एक बार फिर भारत की राजनीति पर हावी हो रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि समस्या ग्रस्त इस देश में नित्य नई समस्याएं पैदा की जा रही है और देश की राजनीति मूलभूत समस्याओं को छोड़कर कृत्रिम समस्याओं से ही संचालित होती दिखाई दे रही है। जिन्ना भारत छोड़ चुके हैं। भारत क्या वे दशकों पहले इस दुनिया को ही छोड़ चुके हैं। वे खुद अपने पाकिस्तान का राजनीति का मसला नहीं बनते, लेकिन भारत की राजनीति उनके लिए अब भी उर्बर बनी हुई है, जितना शायद उस समय थी जब वह भारत को विभाजित कर पाकिस्तान के निर्माण की मांग कर रहे थे।
ताजा मामला अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का है। वहां छात्र संघ के हॉल की दीवार पर जिन्ना का एक फोटो लटका हुआ है और विवाद उसी पर है। एकाएक वहां के स्थानीय भाजपा सांसद को पता चलता है कि जिस शख्स के कारण भारत का विभाजन हुआ, उसकी तस्वीर विश्वविद्यालय में है और वे उसे वहां से हटाने की मांग शुरू कर देते हैं। उन्हें पता है कि उनकी मांग का विरोध किय जाएगा। उनके लिए मांग का विरोध होना जरूरी है, अन्यथा उस मसले पर राजनीति की ही नहीं जा सकती और कर्नाटक में हो रहे विधानसभा चुनाव में इस मसले पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए यह विवाद जरूरी है। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लोगों का कहना है कि वह तस्वीर तो वहां आजादी के पहले से ही है। उनके द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार वह तस्वीर 1938 में दीवार पर लटकाई गई थी। तब उन्हें छात्र संघ ने अपनी सदस्यता प्रदान की थी। छात्रसंघ ऐसे लोगों को भी वहां सदस्यता प्रदान कर देता है, जो कभी वहां छात्र नहीं रहे। जिन्ना ही नहीं, महात्मा गांधी और जवाहरलाला नेहरू भी वहां के छात्र संघ के सदस्य बना दिए गए हैं। और दावा किया जा रहा है कि उन लोगों की तस्वीरें भी वहां दीवार पर टंगी हुइ हैं।
लेकिन जिन्ना का मसला अलग हैं। भारत में शायद उनसे जितनी घृणा की जाती है, उतनी किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जाती होगी। उन्हें भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार माना जाता हैं। विभाजन के समय लाखों लोग मारे गए थे। उनकी मौत के लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाता है। करोड़ों लोग विस्थापित हो गए थे। उनके विस्थापन के लिए भी जिन्ना का ही जिम्मेदार माना जाता रहा है। आजादी और विभाजन के समय सांप्रदायिक विभाजन की जो खाई भारत में रही, वह अभी तक भरी नहीं है और उस खाई में हजारों लोग हिंसा का शिकार होकर लुढ़क चुके हैं। यानी आजाद भारत के लिए जिन्ना किसी बुरे सपने से कम नहीं हैं। सपना यदि बुरा होता है, तो नींद टूटने के बाद लोग राहत लेते हैं कि चलो वह सपना था, लेकिन जिन्ना के बारे में तो यह एक न टूटने वाला सपन है।
यह एक ऐसा सपना है, जिसे देखने के लिए नींद की जरूरत नहीं। इसलिए यह सवाल उठाया जाना स्वाभाविक है कि जब विभाजन के बाद जिन्ना पाकिस्तान चले गए और उन्होंने मुंबई का अपना मशहूर जिन्ना हाउस तक छोड़ दिया, तो फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनकी तस्वीर कैसे रह गई। वह तस्वीर जिन्ना ने खुद नहीं लटकाई थी, जाहिर है, उसे वे नहीं ले जा सकते थे, पर जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वपिद्यालय के लोगों ने उस तस्वीर को वहां रहने क्यों दिया? यह सवाल उन लोगों को जरूर खलेगा, जो यह मानते हैं कि जिन्ना ने ही भारत का विभाजन कराया और लाखों लोग उनके कारण ही मारे गए।
भारतीय जनता पार्टी इस तरह के भावनात्मक मुद्दों पर राजनीति करती रही है। वह जो कर रही है, वह स्वाभाविक है। राजनीति में इस तरह के मुद्दे के इस्तेमाल को हम गलत कह सकते हैं, लेकिन आखिर यह मुद्दा बनता है, इसलिए इसे मुद्दा बनाया जाता है। क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयों के नीति निर्धारकों को यह पता नहीं है? जिन्ना उस विश्वविद्यालय के संस्थापक नहीं रहे है। उसकी स्थापना सर सैय्यद अहमद ने की थी। तो फिर जिन्ना का क्या योगदान था? कहा जा रहा है कि उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कोर्ट की स्थापना करने वालों में शामिल थे। लेकिन भारत के लोग अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की कोर्ट को नहीं जानते।
वे पाकिस्तान को जानते हैं और देश के विभाजन को जानते हैं। और उसके खलनायक के रूप में जिन्ना को जानते हैं क्या अलीगढ़ के उस विश्वविद्यालय के विद्वानों को यह नहीं पता है? क्या देश की जनता की भावनाओं का उनको ख्याल नहीं रखना चाहिए? भारत के धर्मनिरपेक्ष देश है और यह बहुलतावादी भी है। बहुलतावाद को यह संरक्षण देता हैं। इस तरह के तर्कों के आधार पर जिन्ना को महिमामंडित करके कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि हम बहुलतावादी है, जो हमें उनका विरोध करना चाहिए जो बहुलतावादी नहीं है। यदि हम धर्मनिरपेक्ष हैं, तो हमें उन लोगों का विरोध करना चाहिए, जो धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अपना इतिहास रहा है। पहले वह अंग्रेज समर्थक संस्थान था और आजादी की लड़ाई का विरोधी भी था। बाद में वह भी गांधी के नेतृत्व में चल रहे आजादी के आंदोलन में शामिल हो गया। फिर जब पाकिस्तान के निर्माण की मांग उठने लगी, तो वह भी उस मांग के समर्थन में आ गया। सच तो यह है कि विभाजनवादियों का एक बड़ा केन्द्र अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय भी था। जिन्ना और अलीगढ़ के बीच संबंध की एक कड़ी पाकिस्तान के लिए चलने वाला वह आंदोलन भी है।
पाकिस्तान बन गया और जिन्ना अपने पाकिस्तान चले गए, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को तो भारत में ही रहना था और वह यहीं रहा। वहां अलग देश के लिए आंदोलन कर रहे कुछ लोग पाकिस्तान भी चले गए होंगे। अच्छा होता अपने साथ वे जिन्ना की तस्वीर भी ले गए होते, लेकिन उन्होंने उसे वहीं छोड़ दिया और अब वह भारतीय राजनीति का एक मुद्दा बन गया है। कहा जा रहा है कि साफ सफाई के लिए वह तस्वीर वहां से हटा दी गई है। अच्छा हो वहां से उसे हमेशा के लिए ही हटा दिया जाय, ताकि भारतीय राजनीति से एक गैरजरूरी मुद्दा कम हो जाए। (उपेन्द्र प्रसाद - लेखक नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीति व आर्थिक मामलों के जानकार हैं। इस आलेख में लेखक द्धारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई है। और ये उनके निजी विचार हैं।)