कर्नाटक तय करेगा शाह का भविष्य

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कर्नाटक तय करेगा शाह का भविष्य

(लेखक - प्रवीण कुमार, संपादक, सत्ता विमर्श)। राजीनितक गलियारों में इस बात का शोर मचा है कि कर्नाटक चुनाव में अगर भाजपा हारी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और भाजपा की चुनावी जीत के चाणक्य अमित शाह की छुट्टी हो जाएगी। लिहाजा कर्नाटक चुनाव शाह के लिए सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा है। अमित शाह को करीब से जानने वाले बताते हैं कि भाजपा अध्यक्ष को इतना नर्वस उन्होंने पहले कभी नहीं देखा। इसकी वजहें भी हैं। पहली यह कि भाजपा का आंतरिक सर्वे भी उन्हें कर्नाटक में जीत की गारंटी नहीं दे रहा है और दूसरी आरएसएस के नीति-नियंता कर्नाटक की चुनावी बिसात पर शाह की चली गई चाल से बेहद नाराज हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अमित शाह वर्तमान में भारतीय राजनीति के कद्दावर नेता हैं। जहां तक देश की सरकार और भाजपा की बात है तो शाह भले ही यूनियन कैबिनेट में शामिल नहीं हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद अगर किसी की चलती है तो वह अमित शाह हैं। लेकिन जहां तक कर्नाटक चुनाव की बात है तो यह ऐसा चुनाव है जिसे अमित शाह अपनी शर्तों पर जीतना चाहते थे और संघ अपने अंदाज में यह चुनाव लड़ना चाहता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में रसूख रखने वाले सूत्रों का कहना है कि पिछले कुछ दिनों में अमित शाह और संघ के शीर्ष नेतृत्व के बीच तीन मुलाकातें हो चुकी हैं और तीनों ही मुलाकातों में अमित शाह को कुछ बातें सुननी पड़ी हैं। शाह के स्तर पर कर्नाटक में हुए फैसलों से संघ खुद को सहज स्थिति में नहीं पा रहा है और अमित शाह को बार-बार अपने हर फैसले के बारे में सफाई देनी पड़ रही है।

दरअसल, संघ शुरू से ही कर्नाटक को लेकर भाजपा को आगाह कर रहा था। उसके स्वयंसेवकों की रिपोर्ट थी कि कर्नाटक में सिद्धारमैया को कम आंकना बड़ी गलती होगी। लेकिन उस वक्त भाजपा अति-आत्मविश्वास में थी। दिल्ली वालों को कर्नाटक की जमीनी सच्चाई का सही अंदाजा नहीं था और भाजपा के जिन नेताओं को सच्चाई पता थी वे सच बताकर पार्टी आलाकमान को नाराज नहीं करना चाहते थे। इसलिए जब भाजपा चुनावी समर में कूदी तो अचानक जमीन बदली-बदली नजर आई। संघ अब इसी बात से नाराज़ है। आरएसएस नेताओं का कहना है कि भाजपा से एक नहीं कई गलतियां हुई हैं। हर बार भाजपा नेताओं को लगता है कि वो चुनाव जीत जाएंगे तो उनकी गलतियां छिप जाएगी। लेकिन गोरखपुर और फूलपूर के बाद अगर कर्नाटक में भी हार दर्ज हुई तो अमित शाह को इसकी जिम्मेदारी लेनी ही होगी।

आरएसएस के भीतरी सूत्रों की मानें तो संघ शुरू से ही भाजपा को सलाह दे रहा था कि इस बार बीएस येदियुरप्पा का जादू खत्म हो चुका है और केंद्रीय मंत्री अनंत हेगड़े जैसे नए नेता को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के तौर पर पेश करना चाहिए। संघ की दलील थी कि सिद्धारमैया की पार्टी भले ही कांग्रेस है लेकिन उनकी सोच कांग्रेस से एकदम अलग है। इसलिए उन्हें हराने के लिए भाजपा को भी कुछ अलग सोचना और करना होगा। लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने संघ के मनमाफिक बदलाव करने में रूचि नहीं दिखाई। संघ मुख्यालय में पैठ रखने वाले एक नेता की मानें तो संघ की नाराजगी तब और बढ़ गई जब अमित शाह ने बेल्लारी के रेड्डी भाइयों को भी टिकट दे दिया और बेल्लारी का चुनाव जीतने की कमान भी उन्हें सौंप दी। संघ अमित शाह के इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है। संघ को समझ में नहीं आ रहा है कि बेल्लारी की कुछ सीटें जीतने के लिए उन्होंने कर्नाटक के सबसे बड़े चुनावी मुद्दे भ्रष्टाचार से समझौता कैसे कर लिया।

जब तक रेड्डी भाई चुनाव मैदान में नहीं उतरे थे तब तक भाजपा का सबसे बड़ा नारा था- सिद्धारमैया, सिद्धारमैया नहीं सिद्धा-रुपैया हैं। लेकिन अब भ्रष्टाचार का हमला भी भाजपा को ही सहना पड़ रहा है। अमित शाह और संघ नेतृत्व की पिछली मुलाकात तो सिर्फ इसी मुद्दे को लेकर थी। लेकिन शाह अपने जवाबों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को संतुष्ट नहीं कर पाए कि आखिर रेड्डी भाइयों को टिकट देने की जरूरत क्यों पड़ी? संघ के भीतरी सूत्रों का तो यहां तक कहना है कि पार्टी के फैसलों से संघ इस कदर नाराज है कि कर्नाटक में भाजपा हारी तो अमित शाह को अध्यक्ष पद भी छोड़ना पड़ सकता है।

दरअसल, संघ के ज्यादातर नेताओं को अब भाजपा में नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत महसूस हो रही है। अभी संघ में नंबर दो के नेता भैय्याजी जोशी भी अमित शाह से खुश नहीं बताए जा रहे हैं। कर्नाटक के बाद मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव होने हैं। संघ को लगता है कि इन दो राज्यों में भी पार्टी की हालत कुछ अच्छी नहीं है। इसलिए अगर 2019 का चुनाव जीतना है तो बदलाव 2018 में ही करने होंगे। भाजपा अध्यक्ष के तौर पर संघ की पहली पसंद हमेशा से नितिन गडकरी रहे हैं। संघ की नजर में मोदी सरकार में अगर किसी एक मंत्री की छवि सबसे अच्छी है और काम करने का रिकॉर्ड अच्छा है तो वे हैं नितिन गडकरी। इसके अलावा संघ हमेशा सामूहिक नेतृत्व में यकीन रखता है। इस वजह से उसे लगता है कि अब गुजरात के दो नेताओं के भरोसे नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलने का वक्त आ गया है। और बात अगर इतनी दूर तलक आ पहुंची है तो यह काम अमित शाह को अध्यक्ष पद से हटाए बिना संभव नहीं।