रावण रथि वीरथि रघुवीरा

रावण रथि वीरथि रघुवीरा

 कबीर तुलसीदास ने रामचरित मानस में राम और रावण के युद्ध के ठीक पहले की स्थिति का एक बहुत ही चित्रण प्रस्तु किया है। युद्ध के मैदान में रावण रथ पर सवार होकर आता है। उसके पास तीर धुनष, तूणीर ,तलवार, गदा, भाला इत्यादि युद्ध के सभी सामान उपलब्ध हैं। इतना ही नहीं, उसने युद्ध कला में भी पारंगतता हासिल कर रखी है। सभी ग्रहों और देवताऔं को अपनी दहशत में नियंत्रित कर रखा है और दस मुख तथा दस सिर वाला पंडित और कला मर्मज्ञ रावण राम की सेना को देखकर अट्टहास करता है। 


उसके इर्द-गिर्द जितने चापलूस हैं वे राम की वानरी सेना का तीखा मजाक उड़ाते हैं। दूसरी तरफ राम पैदल ही अपना तीर धनुष लिए रावण का मुकाबला करने के लिए रणभूमि में पहुंचते हैं। तुलसीदास ने लिखा है.. रावण रथी वीरथि रघुवीरा मतलब यह कि रावण की शक्ति और बाहर से दिखने वाले उसके रौब के सामने राम इतने मजबूर दिखाई दे रहे हैं कि विभीषण परिणाम की आशंका से ही अधीर हो उठते हैं। वैसे विभीषण तो रावण के भाई थे लेकिन विचारधारा का मेल नहीं होने की वजह से रावण द्वारा अपमानित और प्रताड़ित होकर राम के खेमे में आए थे। राम जिस मकसद से युद्ध कर रहे थे उस मकसद के प्रति विभीषण का आकर्षण और लगाव इतना था कि वह राम की संभावित जीत या हार को अपनी जीत या हार के रूप में देख रहे थे। आज न तो कोई रावण है न ही कोई राम है और न ही विभीषण।

 लेकिन युद्ध के कारण और युद्ध में शामिल होने वाले लोग आज के हालात में भी प्रासंगिक हैं। युद्ध में शामिल एक वर्ग है जो हर तरह से शक्ति और साधन से संपन्न है। वह सत्तारूपी रथ पर सवार है। समाज का आर्थिक दृष्टि से मजबूत वर्ग उसके साथ खड़ा है। मीडिया से लेकर सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सत्ता वर्ग की दहशत फैली हुई है। सत्ता वर्ग किसी को कुछ कहे या न कहे लेकिन अधिकांश लोगों पर भय का भूत सवार है। दूसरी तरफ एक वर्ग उन लोगों का है जो हर तरह से साधनहीन है। उस वर्ग में किसान, मजदूर, बेरोजगार युवा, छोटे-छोटे काम करने वाले ऐसे लोग भी शामिल हैं जिन्हें वामपंथियों की भाषा में सर्वहारा कहते हैं। इस वर्ग के साथ कुछ ऐसे लोग भी खड़े हैं जो विभीषण की तरह हैं। 

वे राजनीतिक दलों तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए लोग हैं लेकिन देश और समाज की स्थिति को देखकर वे लोग उतने ही अधीर हैं जितने विभीषण हो गए थे। सत्ता और साधन संपन्न वर्ग सिर्फ अपनी ताकत पर गर्व का प्रदर्शन ही नहीं कर रहा है बल्कि साधनहीन वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वालों पर अपमान भरे शब्दों का तीखा प्रहार भी कर रहा है। साधन संपन्न वर्ग को अपनी ताकत बढ़ाने में सफलता भी मिलती जा रही है। एक सफलता दूसरी सफलता दिलाने में सहायक की भूमिका निभाती है। कुल मिलाकर ऐसा ही लग रहा है कि एक मजबूत वर्ग की लड़ाई कमजोर वर्गों से है और इसीलिए दोनों पक्षों का मकसद साफ-साफ दिखाई दे रहा है। मजबूत पक्ष यह चाहता है कि सत्ता के समस्त स्रोतों पर उसका ऐसा एकाधिकार हो कि कोई उंगली उठाने की हिम्मत न कर पाए। दूसरा वर्ग यह चाहता है कि वह मजबूत वर्ग का मुकाबला एकजुट होकर करे ताकि मजबूत पक्ष के विजय अभियान को रोका जा सके। 

संभव है मजबूत पक्ष में दिखने वाले कुछ ऐसे लोग भी हों जो मन से कमजोर पक्ष के साथ हों। और किसी न किसी मजबूरी के कारण वे अभी प्रकट रूप से बाहर आना नहीं चाहते हैं। परंतु यह संभावना जरूर रहेगी कि जब लड़ाई अपनी चरम परिणति की ओर बढ़ रही हो तब अचानक कुछ लोग मजबूत पक्ष छोड़कर कमजोर पक्ष की मजबूती के लिए सामने आ जाएं। साफ तौर से इस बात को समझा जा सकता है कि आज देश में विपक्षी दलों के बीच एकता स्थापित करने की जो मुहिम शुरू हुई है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि जिस मकसद के लिए विपक्षी दल अलग-अलग नाम से संघर्ष करते रहे वह मकसद ही अगर हाथ से निकल जाएगा तो उनका वजूद रहने और न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। आज का सत्ताधारी मजबूत पक्ष उन तमाम परंपराओं और नैतिक मूल्यों को उलट देना चाहता है जिस पर आजादी के बाद से लेकर आज तक यह देश और समाज चलता रहा है। जाहिर है कि कमजोर पक्ष में जो लोग हैं वे चाहते हैं कि उन तमाम परंपराओं और नैतिक मूल्यों की रक्षा की जाए जिनके बल पर यह समाज और देश आज तक तरक्की करता आया है। पूरी स्थिति का विश्लेषण करने पर यह समझने में दिक्कत नहीं होती कि मजबूत पक्ष के लोग कमजोर पक्ष के लोगों पर जो व्यंग्यवाण चला रहे हैं वह अकारण नहीं है। राम-रावण युद्ध के समय रावण की मजबूत सेना अगर राम की वानरी सेना का मजाक उड़ाती थी तो उसके लिए उसके पास कारण भी थे। समाज और देश की वास्तविक स्थिति आज क्या है? 

सत्ता पक्ष संविधान, लोकतंत्र और संसदीय परंपराओं तथा नैतिक मूल्यों की रक्षा करने का न सिर्फ स्वांग रच रहा है बल्कि उसके लिए अपनी पीठ भी थपथपा रहा है। परंतु वास्तविकता यह है कि जातिवाद, सांप्रदायिकता, ऊंच-नीच का भेदभाव, घृणा और हिंसा का वातावरण लगातार भयानक रूप लेता जा रहा है। आर्थिक क्षेत्र में गरीबी और बेरोजगारी राक्षस की तरह मुंह फैलाए बढ़ती जा रही है। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय तक घृणा और हिंसा की चपेट में आ रहे है। अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर खत्म होते जा रहे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में शान्ति और सद्भाव की जगह अविश्वास का माहौल पनप रहा है। 

निष्पक्ष चुनाव को लोकतंत्र की रीढ़ के रूप में देखते हैं, लेकिन आज हमारे समाज में ईवीएम को लेकर संदेह की स्थिति पैदा हो रही है। हालांकि चुनाव आयोग अपने दावे पर डटा हुआ है कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं की जा सकती है। लेकिन लोगों में संदेह का माहौल बढ़ता ही जा रहा है। नोटबंदी की घोषणा के साथ सत्ता पक्ष की ओर से दावा किया गया था कि इससे बहुत बड़ी मात्रा में कालाधन बाहर आएगा, लेकिन आजतक जनता इस बात का इंतजार कर रही है कि उसे बताया जाए कि कितना कालाधन बाहर आया और उसका लोगों की आर्थिक उन्नति में किस तरह उपयोग किया गया। जम्मू कश्मीर की स्थिति सुधरने का नाम नहीं ले रही है। नक्सलवादी हिंसा थम नहीं रही। कहने का मतलब यह कि समाज में न शांति है, न सद्भाव है, न उन्नति का कोई रास्ता दिख रहा है, न रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं और न ही मेहनतकशों की स्थिति में कोई सुधार हो रहा है। सत्ता पक्ष आश्वासनों की चासनी घोलकर जरूर पिला रहा है और हर क्षेत्र में सफलता का ढोल जरूर पीट रहा है। मनोविज्ञान बताता है कि किसी लक्ष्य के प्रति इंतजार का समय अगर लगातार बढ़ता ही जाए तो इंतजार करने वाला थक-हारकर निराश होने लगता है और जब निराशा अपने चरम बिंदु पर पहुंचती है तो आक्रोश का रूप ले लेती है। 

जम्मू कश्मीर में जो कुछ हम देख रहे हैं वह वही आक्रोश है। जनता और सरकार के बीच विश्वास का संकट पैदा हो गया है। जम्मू कश्मीर में एक गठबंधन की सरकार चल रही है जिसमें दो पार्टियां शामिल हैं। एक पार्टी घोषित रूप से संविधान के अनुच्छेद 370 को समाप्त करना चाहती है और दूसरी पार्टी हर कीमत पर 370 की रक्षा करना चाहती है। सत्ता के लिए दोनों पार्टियां एक हैं तो ऐसी स्थिति में जनता में अविश्वास का माहौल पैदा होना स्वभाविक है। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कहती हैं कि समस्या का समाधान सिर्फ प्रधानमंत्री के पास है। लेकिन वह यह नही बताती कि राज्य सरकार के मुखिया के तौर पर अपने कर्तव्यों का कितना निर्वाह किया है। वह तो राज्य की जनता को यह भी नहीं बता रही कि प्रधानमंत्री या केंद्रीय गृह मंत्री के साथ उनकी क्या बातचीत हुई है और समस्या सुलझाने के लिए कौन सी रणनीति बनी है। वर्तमान हालात का अत्यंत उदारवादी दृष्टिकोण से भी विश्लेषण किया जाए तो यह विश्वास करना कठिन है कि जन-अपेक्षाएं पूरा होने वाली हैं। ऐसी स्थिति में जन आकांक्षाओं की पूर्ति के आधार पर अपना अस्तित्व कायम रखने वाले विपक्षी दलों के लिए भी गंभीर चुनौती सामने खड़ी है। अगर विपक्षी दल अपने स्वार्थ को किनारे रखते हुए जनता की भलाई के लिए सत्ता पक्ष के साथ टकराने को तैयार होंगे तो उन्हें न सिर्फ जनता का समर्थन मिलेगा, बल्कि उन क्षेत्रों से भी समर्थन मिलने की संभावना रहेगी जहां से अभी कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। 

राष्ट्रपति चुनाव में अपनी एकजुटता दिखाने की जो पहल विपक्षी दलों ने की है उसे वे पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ निभाएं तो यह पूरे देश और समाज के लिए उनका बहुत बड़ा योगदान माना जाएगा। गांव में किसी एक व्यक्ति के घर में जब आग लगती है तो पूरा गांव वहां इकट्ठा हो जाता है और आग बुझाने की कोशिश करता है। वे जानते हैं कि कुछ झोपड़ियां जल भी जाएं और आग पर काबू पा लिया जाए तो झोपड़ियां बाद में भी बन सकती हैं। विपक्षी दलों को यह समझना होगा कि उनके सामने जो चुनौती है वह उसी आग की तरह है जिसे बुझाने के लिए उन्हें खुले दिल और दिमाग से प्रयास करना होगा। एक बार चुनौती का सामना कर लिया तो अपना विकास तो बाद में भी कर सकते हैं। मतलब यह कि वर्तमान हालात सत्ता पक्ष के लिए नहीं बल्कि विपक्ष के लिए चुनौती बनकर खड़े हैं। देखना यह है कि विपक्षी दल कितनी गंभीरता से स्थिति को समझते और उसका सामना करते हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। इस आलेख में लेखक द्वारा दी गई सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)